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जैनधर्मपर व्याख्यान मंसस्स पत्थि जीवो जहा फलेदहियदुद्धसकराए । तमा तं हि मुणित्ता भक्खंतो पत्थि पाविठो॥८॥ मजं तवज्जणिज दव्वदवंजहजलंतहएदं । इति लोए घोसित्ता पव्वतिय संघसावजं ॥९॥ अण्णोकरेदिकम्मं अण्णो त्वं मुंजदीदि सिद्धत्तं ॥
परिकप्पिऊपणूणं वसिकिवाणिरयमुववहणो ॥१०॥ अर्थ-श्रीपार्श्वनाथके तीर्थमें, सरयूनदीके कांठे ऊपर पलास नामा नगरमें रहा हुआ पिहिताश्रव नामा मुनिका शिष्य, बुद्धकीर्ति जिसका नाम था, सो एकसमय सरयूनदीमें बहुत पानीका पूर चढ़ाया तिस नदीके प्रवाहमें बहुतसे मरे हुये मच्छ बहते २ कांठे ऊपर आ लगे, तिनको देख के तिस बुद्धकात्तिने अपने मन ऐमा निश्चय किया कि स्वतः अपने आप जो जीव मरलाचे तिसके मांस खानेमें क्या पाप है ? ऐसा विचार करके उसने अंगीकारकी हुई प्रवजाव्रतरूप छोड़दा अर्थात् पहले अंगीकार कियेहुर्य धर्मसे भ्रष्ट होकर मांसभक्षण करा और लोकोंके आगे ऐसा अनुमान कथन करा. मांसमें जीव नहीं है, इसवास्ते इसके खाने में पाप नहीं लगता है. फल दही दूध मिसरी सक्कर की तरह तथा मदिरा पीनेमें भी पाप नहीं है. ढीला द्रव्य होनेसे जलकी तरह. इसतरहकी प्ररूपणाकरके उसनें बौद्धमत चलाया और यह भी कथन करा- कि-सर्वपदार्थ क्षणिक हैं, इसवास्ते पापपुण्यका कत्ता और है और भोक्ता और है यह सिद्धांत कथन करा. स्वामी आत्माराम स्वेताम्बरी साधु अपने बनाये अन्नानतिमिरभास्कर और अन्यपुस्तकोंमें, और पंडित शिवचन्द्रदिगम्बरी अपनी प्रश्नोत्तरदीपिकामें बौद्धधर्मक विषयमें दर्शनसारकी इस कथाका प्रमाण देते हैं और इस समयके प्रायः अन्य सब पंडित भी इसमत (खयाल) को पुष्ट करनेके लिये इसी कथाका प्रमाण देते हैं और कहते हैं कि बुद्ध वास्तवमें जैनसाधु था, जिसने ज्ञानभ्रष्ट होकर मांसकी प्रशंसा की और रक्तांबर ( लालवस्त्र ) पहनकर अपना मत चलाया ।। ___ अब महायो ! आप देखें कि ब्राह्मणोंके ग्रंथोंमें व्यासमुनिके समयतक जै नियोको बौद्धमतकी शाखा कहीं भी नहीं बतलाया और यह वह समय था जब बुद्ध स्वयं विद्यमान था. बौद्धोंके शास्त्रोंमें जैनिनियोंको बुद्धके समयमें रहनेवाले अथवा ऐसा फिर्का लिखा है जो नवीन बुद्धोंसे बहुत पुराना है और जैनशास्त्रोंके अनुसार बुद्ध एक जैनसाधु पिहिताश्रवका शिष्य था. फिर क्योंकर जैनी बौद्योंकी शाखा समझे जासक्ते हैं वेबर ( Weber ), विल्सन (Wilson ) और अन्य अंग्रेज विहानोंने हमको बौद्धोंकी शाखा बतलाया है वो क्या उन्होंने हमारे साथ अन्याय नहीं किया ? अवश्य कियाहै.