________________
जैनधर्मपर व्याख्यान. राजतरंगिणी में लिखा है कि अशोक रानाने जनमत स्वीकार किया था इसमें भी जिन शब्द आया है यथा
"प्रपौत्रः शकुनेस्तस्य भूपतेः प्रपितृव्यजः। अथावहदशोत्राख्यः सत्यसंधोवसुंधराम् ॥ २०१ ॥ यः शान्तजिनो राजा प्रपन्नो जिनशासनम् । शुष्कलेत्रवितस्तात्रौ तस्तारस्तूपमण्डले" ॥ १०२ ॥
(प्रथमस्तरंगः) अर्थ-तपश्चात् सत्यप्रतिज्ञ अशोक जो कि शकुनिका पोता और उस राजाके चचेरे भाईका लड़काथा, पृथ्वीका मालिक हुवा ॥ १० ॥
पापरहित जिसने जिनमतका स्वीकार किया और जनसमूहमें शुष्कलेव और वितस्तात्र नामक दो विहार रचे ॥ १०२॥
इसी जिन शब्दसे हम जैनी कहलाते हैं, शब्द अर्हन हनूमान नाटक, गणेश पुगण और भागवत आदि पुस्तकोंमें आया है
शैवं पाशुपतं कालमुखं भैरवशासनम् । शाक्तं वै नायकं सौरो जैनमाहतसंहिता ॥
(अ० ४७ श्लो० ३३ गणेश पुराण) अर्थ-शेव, पाशुपत, कालमुख, मंग्व शासन, शाक्त, वैनायक, सौर, अन आहेतशासन,, ये गणपति सहस्रनाममें गणपतिके नाम है
यस्य किलानुचरितमुपाकळकोंकवैककुटकानां राजाहऽनामापशिस्य कलावधर्म उत्कृष्यमाणोभवितव्य न विमोहितः स्वधर्मपथमकुतोभयमप हायकुपथपाखंडपथमसमजसं निजमनीषया मन्यसंप्रवर्तयिष्यते ॥
(भागवत पंचमस्कंध, अ०६श्लो . ९) अर्थ-जिनका चरित्र सुनकर कोंक, बैंक, कुटकदेशनका राजाश्री अर्हन् नामक उनकी ( श्रीऋषभदेवकी ) शिक्षा लेकर पूर्वकर्मके कारण कलियुग में जब अधर्म बहुत होजायगा, तब अपने धर्मके मार्गको जिसमें किसीका भय नहीं है छोडकर सबके विरुद्ध पाखण्डमत अपनी बुद्धिस चलावैगा।
इस शब्दसे ही जैनियोंको आहताः कहत हैं। अब हम बौद्धमतके ग्रंथ देखते हैं। उनमें यह वर्णन है कि महावीर जो जैनियोंके
. २४ वे तीर्थकर है बुद्धके समयमै हुये और उसके ६ विरुद्ध उपबाद्धमतक अथ दशकों में से एक थे। कल्पसूत्र आचारांगसूत्र, उत्तराध्ययन सूत्रकतोग और अन्य स्वेताम्बर ग्रंथोमें महावारको ज्ञातपुत्र लिखा है । "ज्ञात" क्षत्रियोंकी वह जाति