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जैनधर्मपर व्याख्यान.
अथोक्तकस्ते कुंडले सन्यस्य भूमावुदकार्थं प्रचक्रमे । एतस्मिन्नन्तरे स क्षपणकस्त्वरमाण उपसृत्य ते कुंडले गृहीत्वामाद्रवत् || २७ ॥
अर्थ- मैं यत्न से जाऊंगा ऐसा कह कर उत्तंकने उन कुंडलांको लेकर चल दिया. उसने रास्ते में नन क्षपणक को आते हुये देखा ॥ २६ ॥ इसके पश्चात उत्तंक उन कुंडलोंको पृथ्वीमें रखकर पानी पीनेकेलिये गया, इस अवसरमें वह क्षपणक जल्दीसे आकर कुंडल लेकर भागगया || २७ ॥
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नीलकंठ क्षपणक शब्द की टीका पाषंड भिक्षुक करता है और नम्र पाषंड भिक्षुकका अर्थ दिगंबर जैन साधु ही हो सक्ता है । यह बड़े अपमोस की बात है कि ब्राह्मण लोग जैन साधुओं का ऐसे समय पर ही कथन करते हैं जब कोई बुरा काम कराना होता हैं उदाहरण केलिये मुद्राराक्षस नाटक को भी देखिये जिसमें एक जैन साधुको गुप्त होकर घृणा योग्य काम करना पड़ा है ।
द्वैत ब्रह्मसिद्धिका बनानेवाला क्षपणक को जैनसाधु लिखता है-
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'क्षपणका जैनमार्गसिद्धान्तप्रवर्तका इति केचित् "
(पृष्ठ १६७ कलकत्ते की छपीहई Calcutta Dalition )
अर्थ -- क्षपणक जैनमतके सिद्धांत को चलाने वाले कोई होते हैं ।
शांतिपत्रे में मोक्ष धर्म के ० २३८ श्लोक ६ में जैनियों के सप्तभंगीनय का जिकर आया है. मूल श्लोक इस प्रकार है-
एतदेवं च नैवं च न चोभयेनानृमं तथा ।
कर्मस्याविषयं यः सत्वस्थाः समदर्शिनः ॥ ६ ॥
टीका नीलकंठ --- आर्हतमतमाह एतदिति तैर्हि स्यादस्तिस्थान्नास्यिादस्तिचनास्तिचावक्तव्यः स्यादवक्तव्य इति सप्तभंगीनयः सर्वत्रयोज्यते अतएतदेवमिति स्यादत्युक्तंचातएतन्नएवंचनेतिसंबंधेन स्यान्नास्तिस्यादवक्तव्यइतिचोक्तंनचोमेत्यनेनस्यादस्ति नास्तिवस्यादस्ति चनास्तिचावक्तव्यइति चोक्तं कर्मस्याआर्हताविषयघटादि एतदेवमस्तत्यिादि ब्रूयुरिति सम्बधः एतेषु पक्षेषु कृतहानाकृताभ्यागमप्रसंगात्स्वभावमात्र पक्षस्तुच्छ ः बंधमोक्षादिवस्तुमात्र स्वरूपस्यास्तिनास्तीत्यादिविकल्पग्रस्तत्वेनानवधारणा त्मकआर्हतपक्षोपि तुच्छण्व परिशेषात्समुच्चयपक्षएव श्रेयान् व्यवहारेपरमार्थ स्तु सत्वस्थायौगिनः समदर्शिनो ब्रह्मैवकारणत्वेनपश्यंति ॥ ६ ॥
श्लोकार्थ- परमार्थ में लगे हुये योगी आर्हत् अर्थात् जैनी इस प्रकार घटादि पदार्थों का कथन करते हैं यह वस्तु ऐसी है, यह ऐसी नहीं है, यह वस्तु ऐसी है भी और नही भी, यह वस्तु है ऐसा नहीं कह सक्ते और यह वस्तु ऐसी नहीं है ऐसा भी नहीं कह सक्ते ॥