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जैनधर्मपर व्याख्यान. अर्थ-जब सूर्य भरणीनक्षत्रमें होता है उस समय उसके अस्त होनेके वक्त ध्रुवमत्स्य टेढा होता है, उसके मुखकी तारा पश्चिममें होती है और पूंछकी तारा पूर्वमें होती है. उस समय मुखतारारूपी सूत्रमें सूर्य होता है। फिर रात्रिके अंतमें मुखकी तारा फिरकर पूर्वमें आ जाती है और पूंछकी तारा पश्चिमको चली जाती है इस प्रकार सूर्यका उदय मुखकी तारारुपी सूत्रमं नजर आता है. इस कारण दो दो सूर्यका मानना ठीक नहीं है । इसलिये यहां यह कहा कि तेरी मूर्खता कहां तक समझें कि ध्रुवमत्स्यके फिरनेको देखकर भी तारा सूर्य और चन्द्रमा दो २ मानलिये ॥
बराहमिहिर जो डाक्टरकन ( Dr. Kern ) आदिके कहनेके मुताविक ६०० ई० में हुआ अपनी बृहतसंहिता पुस्तकमें जैन और बौद्र दोनों का बडा जरूरी कथन करता है वह कहता है कि नग्न वा जैन 'जिन' का पूजते हैं और शाक्य वा वौद्ध 'बुद्धको पृनते हैं. शाक्यान सवाहितस्य शान्तमनसो ननां जिनानां विदुः
(श्लोक० ११ अ०६१) अर्थ- बुद्धदवक उपासक शाम्य कहलाते हैं और जिनदेवके उपासक नग्न वा जैन कहलात हैं। ___ महाशया ! ध्यान दीजिय कि बगहमिहिरन छही सदामें कहा था कि इन दानों मताक इष्टदेव बिल्कुल न्यारं २ हैं। हनुमान नाटकम भी ऐसा ही कथन किया है उसमें कहा है कि राम जैनियोंका अर्हत भी था और बोडोंका बुद्ध भी यथा___ "यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मति वेदान्तिनो बौद्धा बृद्ध इति प्रमाणपटवः कतति नैयायिकाः । अर्हनित्यथजैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः सोऽयं वो विदधातु बाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथः प्रभुः"
(श्लोक ३ अ० १) अर्थ-जिसकी शैवलोग महादेव कहकर उपासना करते हैं और जिसको वेदांती लोग ब्रह्म कहकर, बौद्ध लोग बुद्धदेव कहकर, युक्तिशास्त्रमें चतुर नैयायिक लोग जिसे कर्ता कहकर और जैनमतवालें जिसको अर्हन् कहकर मानते हैं और मीमांसक जिसको कर्म रूप वर्णन करते हैं वह तीनलोकका स्वामी तुमारे वांछित फलको देवै ॥
आगे चलकर बाराहमिहिर कहता है कि बुद्धकी मूर्ति और भईत् अर्थात् जैनियोंके देवताओंकी मूर्तियोंकी बनावट अलग २ है
आजानुलम्बबाहुःश्रीवत्सांकः प्रशान्तमूर्तिश्च । दिग्वासास्तरुपो रूपवांश्च कार्योऽहतां देवः ॥
(श्लोक ४५ अ०५८)