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जैनधर्मपर व्याख्यान. जगत शून्य है. योगाचार मानते हैं कि बाह्य पदार्थ ही शून्य हैं । सौत्रान्तिक कहते हैं कि वालपदार्थ अनुमानसे सिद्ध होते हैं और वैभाषिक कहते हैं कि वाद्यवस्तु प्रत्यक्षसे जानी जा सकती है।
बौद्धोंकी इन चारों शाखाओंका बहुधा कथन आता है और भलेप्रकार विदित है परन्तु जैनमत इनमें कभी भी शामिल नहीं किया गया।
सिद्धांतशिरोमणिका बनानेबाला जैन और बौद्धोंकी ज्योतिषका अलग २ कथन करता है और उनमें दोष निकालता है:--
"भूः खेऽधःखलुपातीति बुद्धिबौद्धमुधा कथम् । जातायातं तु दृष्ट्वापि खेपतक्षिप्तं गुरुक्षितिम् ॥"
(सिद्धांतशिरोमणिगोलाध्याय श्लोक ९) यदि भूरधो याति तदा शरादिकमूर्व क्षिप्तं पुनर्भुवं नैष्यति । उभयोरधोगमनात् । अथ भूमर्मन्दा गतिः शरादेः शीघ्रा । तदपि न । यतो गुरुतरं शीघं पतति । उर्व्यति गुर्वी । शरादिरति लघुः । रे बौद्वैवं दृष्ट्वापि भूरधो यातीति बुद्धिः कथमियं तव वृथोत्पन्ना।
(टीकाश्रीपति) अर्थ-यदि पृथ्वी नीचको जाती हैं । यदि यह कहो कि पृथ्वी को मंदगति (चाल) है और बाणकी शीघ, इसकारण पृथ्वीपर आता है तो ऐसा भी नहीं हो सक्ता क्योंकि भारी वस्तु जल्दी गिरती है पृथ्वी भारी है और बाण हलका है ऐसा देखकर भी हे बौद्ध तेरी ऐसी मति वृथा क्यों हुई कि पृथ्वी नीचे जाती है"
किंगण्यं तव गुण्यं द्वैगुण्यं यो वृथा कृथाः। मार्केन्दूनां विलोक्यात धुवमत्स्यपरिभ्रमम् ॥
(श्लोक १०) पदा भरणीस्थो रविभवति । तदा तस्यास्तमयकाले ध्रुवमत्स्यस्तियंस्थो भवति । तस्य मुखतारा पश्चिमतः । पुच्छतारा पूर्वतः । तदा मुखतारा सूत्रे रविरित्यर्थः । अथ निशावसाने मुखतारा परिवर्त्य पूर्वतो याति । पुच्छतारा पश्चिमतो याति । ततो मुखतारासूत्रगतस्यैवार्कस्योदयो दृश्यते । अतो द्वौ द्वौ सूर्यावित्यनुपपन्नम् । अत उक्तं किं किमेकं तव वैगुण्यं गण्यम् । येन भुवमत्स्यपरिभ्रमं दृष्ट्वापि मान्दूना है गुण्यमङ्गीकृतम्।
(टीका श्रीपति)