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जैनधर्मपर व्याख्यान.
अब देखना चाहिये कि जब शंकराचार्य जैनियोंके विषयमें ऐसा लिखते हैं तो यह कैसे संभव हो सकता है कि जैनमत उनके पीछे प्रचलित हुआ हो. मैं उम्मेद करता हूं कि लेथब्रिज (Kethbridge ) और मौंट स्टुआर्ट एलफिंस्टन (Mou ntstuart Elphinstone ) अंग्रेज लेखक आइन्दा जैनमतको छटी सदोमें प्रचलित होनेवाला कभी नहीं समझेंगे । जैनियोंको बडा हर्ष होगा यदि इन विद्वानोंकी पुस्तकोंमेंसे वह बातें निकाल दी जाय जो वहकानेवाली हैं क्योंकि उनसे बहुत भ्रम हो रहा है । लेथब्रिज साहबका बनाया हुआं इतिहास मदसोंमें पढ़ाया जाता है और इस पुस्तकसे बालकोंके चित्तमें जैनमतके विषयमें मिथ्या ज्ञान बैठ जाता है। अब हम देखते हैं कि प्रोफेसर विल्सन Wilson जैनमत बौद्ध मतकी लेसन
- Lassen बार्थ Barth और वंबर wolbey आदि अंग्रेज विहान जैनियों मतकी शाखा को बौद्धोंकी शाखा बतलातेहैं सो यह सत्य है या नहीं, परन्तु इससे नहीं है
- पहले हमको यह जान लेना चाहिये कि यद्यपि वे कहते हैं कि जैनमत बौद्धमतसे उसके प्रचलित होनेके शुरू में ही निकला परन्तु वे यह कुछ नहीं बतलाते कि किस प्रकार, कव, और किस अवस्थामें निकला और उसको उत्पतिके क्या कारण थे. यही नहीं बल्कि इनमेंसे कई तो स्वयं यह भी अंगीकार करते हैं कि उनको अपनी राय देनेके समय जैनमतका बहुत ही कम हाल मालम था. जैसे बार्थ Barth साहब अपनी पुस्तक ' भारतके धर्म' (Rehgions oflulia1892) मेलिखते हैं कि "पुराने जमानेमें भारत वर्षमें जो ऐसे धर्म थे कि जिन्होंने बडे २ काम किये हैं उनमें से जैनधर्म एक ऐसा मत है जिसका हाल हमको सबसे कम मालूम है(४)हमको अभी तक इसका एक प्रकारका साधारण ज्ञान हैं और इसकी इतिहास सम्बंधी उन्नतिके विषयमें हम कुछ नहीं जानत (५)
फिर वह यह भी अपनी उदारतासे मानते हैं कि (६)"इस प्रश्नका उत्तर देनेकेलिये कि किस समयमें यह मत सचमुच स्वतंत्र हुआ हमको पहिले पुराने जैनधर्मकी दशा जाननी उचित हैं और इस कामके करनेके लायक हम केवल उस वक्त हो सक्ते हैं जब हमको इस मतके शास्त्र मिलैं, इस समयतक जो कुछ हाल हमको इस मतके विषयमें मालूम हुआ है सब इधर उधरके सुबूतों पर निर्भर है" वेबर (Weber ) साहब भी अपनी पुस्तक "भारत वर्षके साहित्यका इतिहास" ( History of " Indian Diterature 1892) में कहते है कि "जो कुछ हाल हमको जैनमतका मालूम हुआ वह केवल बाह्मणोंकी ही पुस्तकोंसे मालूम हुआ है" ऐसी हालतीम क्या हम इन विद्वा