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जैनधर्मपर व्याख्यान. का धर्म है अथवा यह वैश्योंका मत है परन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, यह उनकी भूल है, यह उनकी अज्ञानता है, और इसबिषयमें उनको ठीक २ हाल मालूम नहीं हुआ है जो ऐसा कहते हैं, ऐसा बतलाते हैं, ऐसी बातें करते हैं । जैनमत क्षत्रियोंका धर्म है दिग म्बरऋषीश्वरऋषभसे लेकर दिगम्बर ऋषीश्वरवर्द्धमानतक समस्त तीर्थकर क्षत्रियों और क्षत्रियोंके ऐसे उज्वल कुलोंमें पैदा हुये थे, जैसे कि इक्ष्वाकु वंश और हरिवंश इत्यादि । ___ महाशयो! आपको यह भी याद रखना चाहिये कि जैनमत ही एक ऐसा धर्म है कि जिसकी कीर्तिको गूगे जानवर अपनी वाणी रहित जिह्वासे गाते हैं क्योंकि महाशयो! आप लोग मुझको बतलाइयेकि दूसरा कौनसा ऐसा धर्म है जिसने कि चाहे कुछ ही मतलब क्यों न हो, जीवहिंसाके बिल्कुल रोकनेकी आज्ञा दी है; और कौनसा ऐसा दूसरा धर्म है जो कार्योंके करनेमें जीवोंकी रक्षाका इतना अधिक ध्यान रखता हो: पस ऐ महाशयो इस समयमें आपके सामने उस जैनमतके विषयमें व्याख्यान देनेको खडा हुआहूं जिसकी क्षत्रियोंने नीम डालो और जिसका प्रचार क्षत्रियोंने किया और जोकि उनमतोंकी नामा वलीमें अव्वल नम्बरपर रहनेका दावा कर सक्ता है जो "अहिंसा परमो धर्मः" के नियमको पालनेका दम भरते हैं।
ऐमहाशयो ! लोगोंने बहुत निर्दयहोकर इस जैनधर्मको मिथ्या समझा है. किसीने लोगों न इसकी उत्पत्तिको मिथ्या समझा है किसीने इसके फिलासफ़ेको मिथ्या धर्मको यथार्थ समझा है. किसीने इसके सिद्धांतोंको मिथ्या समझा है. किसीने इसकी नहीं जाना.
- प्राचीनताको मिथ्या समझा है. निदान इसको सर्वथा मिथ्या समझा है किसी २ ने इसको मिथ्या ही नहीं समझा बल्कि द्वेष और बैरभावके कारण इसपर दोष भी लगाये हैं। कोई इसको नास्तिक मत बतलाता है कोई कहता है यह बनियों वा सरावगियोंका मत है, कोई इसको बौद्धमतकी शाखा बतलाता है, कोई कहता है कि यह मत उस समय निकला जबकि शंकराचार्य- ब्राह्मणोंके मतकी उन्नति की, कोई इसको ब्राह्मणोंके मतसे निकला हुआ बताता है, कोई कहता है कि महावीरस्वामीने इस मतको चलाया था, कोई पार्श्वनाथको इस मतका प्रचलित करनेवाला बतलाता है कोई इसको मलीन आचरणोंका समूह समझता है, कोई कहता है कि जैनी कभी स्नान नहीं करते, और न कभी दाँतोंन करते हैं, कोई जैनियोंपर नग्नमूर्ति पूजनेके कारण दोष लगाता है, कोई कहता है कि जैनियोंका कोई न्याय दर्शन ही नहीं है, इतना ही नहीं बल्कि कोई २ दुष्ट, दुराचारी, मिथ्यापबादी तो बुराईकी अंतिम सीमातक पहुँच गये हैं और कहते हैं ।
"न पठेद्यावनी भाषां प्राणैः कण्ठगतैरपि । हस्तिना पीड्यमानोऽपि न गच्छेजिनमन्दिरम् ॥१॥