Book Title: Khartar Gacchha Bruhad Gurvavali
Author(s): Jinpal Upadhyaya, Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 19
________________ खरतरगच्छ -पट्टावलि संग्रह संग्राहक एवं संपादक मुनि जिनविजय, अधिष्ठाता-सिंघी जैन ज्ञानपीठ, शान्तिनिकेतन । (प्रकाशक-बाबूपूरण चन्दजी नाहार, इण्डियन मिरर स्ट्रीट, कलकत्ता।) संपादकीय किश्चित् वक्तव्य । लगभग ६७ वर्षसे खरतरगच्छीय पट्टावलियोंका यह छोटा सा संग्रह छप कर तैयार हुआ था, लेकिन विधिके किसी अज्ञेय संकेतानुसार आज तक यह यों ही पड़ा रहा और यदि विद्वद्वर बाबू पूरणचंदजी नाहारकी उपालंभ भरी हुई मीठी चुटकियोंकी लगातार भरमार न होती तो शायद कुछ समय बाद यह संग्रह साराका सारा ही दीमकके पेटमें जा कर विलीन हो जाता। पूनामें रह कर जब हम 'जैनसाहित्य-संशोधक' का प्रकाशन करते थे उस समय अहमदाबाद-निवासी साहित्य-रसिक विद्वान् श्रावक श्री केशवलाल प्रे० मोदी B. A. LL. B. ने खरतरगच्छ की एक पुरानी पट्टावलीकी लिखित प्रति हमें ला कर दी-जिसमें इस संग्रहमें की प्रथम ही छपी 'खरतरगच्छ-सृरिपरंपरा-प्रशस्ति' लिखी हुई थी। उस समय तक खरतरगच्छ की जितनी पट्टावलियां हमारे देखने अथवा संग्रह करनेमें आई उन सबमें यह प्रशस्ति हमें प्राचीन दिखाई पड़ी इसलिये हमने इसकी तुरंत नकल कर, 'जैन सा० सं०' के परिशिष्ट रूपमें छपवा देनेके विचारसे प्रेसमें दे दी। कुछ समय बाद मोदीजीने एक और पट्टावली भेजी जो गद्यमें थी और साथमें उन्होंने यह भी इच्छा प्रदर्शित की कि इसे भी यदि उसी प्रशस्तिके साथ छपवा दिया जाय तो अच्छा होगा । हमने उसकी भी नकल कर प्रेसमें छपनेको दे दी। जब ये प्रेससे कंपोज हो कर आई तो पूरे फार्म होनेमें कुछ पृष्ठ खाली रहते दिखाई दिये, तब हमने सोचा कि यदि इसके साथ ही साथ उपाध्याय श्री क्षमाकल्याणजी की बनाई हुई बृहत्पावलि भी दे दी जाय तो खरतरगच्छके आचार्योंकी परंपराका १९ वीं शताब्दि पर्यंतका वृत्तान्त, प्रकट हो जायगा और इतिहास प्रेमियोंको उससे अधिक लाभ होगा । इस पट्टावलीकी प्रेस कापी की हुई हमारे संग्रहमें बहुत प.ले ही से पड़ी हुई थी; अतः हमने उसे भी प्रेसमें दे दिया। इसी तरह की, लेकिन इससे प्राचीन एक और पट्टावली हमारे पास थी उसे भी, प्रत्यंतर होनेसे विशेष उपयोगी समझ कर, इसी संग्रहमें प्रकट करनेका हमें लोभ हो आया और उसे भी छपने दे दिया। इस प्रकार चार पट्टावलियोंका यह छोटा सा संग्रह जब तैयार हो गया, तब हमने इसे 'जैन सा० सं०' के परिशिष्ट रूपमें न दे कर स्वतंत्र पुस्तकाकार प्रकट करनेका विचार किया और यह स्वतंत्र पुस्तकका विचार मनमें घुसते ही हमारे दिल में एक नया भूत आ घूसा । हम सोचने लगे कि जब पुस्तक ही बनाना है तब फिर क्यों नहीं विशेष रूपसे एक संकलित ऐतिहासिक ग्रंथके आकार में इसे तैयार कर दिया जाय और खरतर गच्छके इतिहासके जितने मुख्य मुख्य और महत्वके साधन हों उन्हें एकत्र रूपमें संगृहीत कर दिया जाय।क्यों कि हमारे संग्रहमें इस विषयकी कितनी ही सामग्री - इन पट्टावलियोंके अतिरिक्त कई अन्य भाषाकी पट्टावलियां, ग्रंथप्रशस्तियां तथा ख्यात आदि विविध प्रकार की ऐतिहासिक सामग्री - इकट्ठी हुई पड़ी थी। उस सब सामग्रीको संकलित कर ऐतिहासिक ऊहापोह करनेवाली विस्तृत भूमिका और टीका टिप्पणी आदि साथमें लगा कर इस संग्रहको परिपूर्ण बना दिया जाय तो श्वेताम्बर जैन संघके एक बड़े भारी शाखा-समुदायका अच्छा और प्रामाणिक इतिहास तैयार हो जाय । इस भूतके आवेशानुसार हमने उस सब सामग्रीका संकलन करना शुरू किया । ऐसा करनेमें हमें कुछ अधिक समय लग गया और अहमदाबादके पुरातत्त्व मंदिरके आचार्यपदके भारने हमारी पूनाकी विशेष स्थितिको अस्थिर बना दिया। इसलिये इस संग्रहके विस्तृत-संकलनका जो विचार हुआ था वह शिथिल होने लगा और चिरकाल तक कुछ कार्य न हो सका। इधर जिस प्रेसमें यह संग्रह छपा उसके मालिकने छपाईके खर्च आदिका तकाजा करना शुरू किया। जिस विस्तृत रूपमें इसे प्रकाशित करनेका सोचा था उसमें बहुत कुछ समय और अर्थव्ययकी आवश्यकता अनुभूत हुई और शीघ्र ही इस कार्यको परिपूर्ण करने जैसे संयोग दिखाई न दिये, अतः हमने उस विचारको स्थगित किया और यह संग्रह जो इस रूपमें छप गया था, इसे ही प्रकाशित कर देना उचित समझा। इसी बीचमें बाबूवर्य श्री पूरणचंदजी नाहारके अवलोकनमें यह छपा हुआ संग्रह आया और आपने इसे अपने खर्चसे प्रकाशित कर अपनी धर्मपत्नी श्रीमती इंद्रकुमारीजीके ज्ञान पंचमी तपके उद्यापन निमित्त वितीर्ण कर देनेका अभिप्राय प्रकट किया। तदनुसार पूनासे यह छपा हुआ ग्रंथ-भाग कलकत्ते मंगवा लिया गया और प्रेसका बिल इत्यादि चुकता किया गया। इस संग्रहके साथमें हम कुछ दो शब्द लिख दें तो इसे प्रकाशित कर दिया जाय ऐसी बाबूजीकी इच्छाको हमने सादर स्वीकार कर, हम इस विषयमें कुछ सोचते ही थे कि कुछ ऐसे प्रसंग, एकके बाद एक, उपस्थित होते गये जिससे वर्षों तक हम उनकी उस आज्ञाका पालन नहीं कर सके और २४ घंटेके कामको २।४ वर्ष तक ठेलते रहना पड़ा। सन् १९२८ के प्रारम्भमें महात्माजीने गुजरात-विद्यापीठकी पुनर्घटना की, और विद्यापीठका ध्येय 'विद्या' नहीं 'सेवा' निश्चित किया और साथमें कई प्रतिज्ञाओंका बन्धन भी लगाया। हमारा उसमें कुछ विशेष मतभेद रहा और हमने अपने विचारोंको स्थिर करनेके लिए कुछ समय तक, विद्यापीठके वातावरणसे दूर रहना चाहा । इसीके बाद तुरंत हमारा इरादा युरोप जानेका हुआ। युरोपमें सामाजिक और औद्योगिक तंत्रोंका विशेषावलोकन करनेका हमें अधिक मौका मिला और उसमें हमें अत्यधिक रुचि उत्पन्न हुई । हमारा जो आजीवन अभ्यस्तविषय संशोधनका है, उसमें तो हमें वहां कोई नवीन सीखनेकी बात नहीं दिखाई दी, क्यों कि जिस पद्धति और दृष्टिसे युरोपियन पण्डितगण संशोधन कार्य करते हैं, वह हमें यथेष्ट ज्ञात थी और उसी पद्धति तथा दृष्टिसे हम बहुत समयसे अपना संशोधन-कार्य करते भी आते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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