Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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क्योंकि सब जीवों में इन तीन कर्मोंका क्षयोपशम सम्भव नहीं है । इसीप्रकार मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणको देशघातीरूपसे और सर्वघातिरूपसे वेदन करता है ।
यहाँ शंकाकार कहता है कि अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण कर्मोंका अनुभाग- उदय किन्हीं जीवोंमें देशघाति स्वरूप होता है और अन्य जीवोंमें सर्वघाति स्वरूप होता है क्योंकि सब जीवोंमें इन तीन प्रकृतियोंकी क्षयोपशमलब्धि होती है, ऐसा नियम नहीं है । किन्तु मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणका किसीके देशघातिस्वरूप और किसीके सर्वघातिस्वरूप अनुभाग- उदय होना सम्भव है, इसलिये सब क्षपक जीवोंमें उक्त कर्मो की क्षयोपशम लब्धि नियमसे होती है, यह सम्भव नहीं है ।
यहाँ इस शंकाका समाधान यह है कि यद्यपि सब जीवोंके क्षयोपशम- लब्धिसामान्य सम्भव है किन्तु क्षयोपशम विशेष की अपेक्षा प्रकृत अर्थ बन जाता है । यथा मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण इन दोनों प्रकृतियोंके असंख्यात लोकप्रमाण उत्तरोत्तर प्रकृतियाँ हैं, क्योंकि पर्याय श्रुतज्ञानसे लेकर सर्वोत्कृष्ट श्रुतज्ञानपर्यन्त श्रुतज्ञानके भेदोंके उतने ही आवरण कर्म हैं । मतिज्ञानके इतने ही आवरणविकल्प बन जाते हैं, क्योंकि मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है, इसलिये जितने भेद श्रुतज्ञानके हैं उतने ही भेद मतिज्ञानके बन जाते हैं । इस प्रकार श्रुतज्ञानावरणके जितने भेद हैं उतने ही मतिज्ञानावरण भी बन जाते हैं । इस कथनमें कोई बाधा नहीं आती। ऐसा होने पर सर्वोत्कृष्ट क्षयोपशमपरिणत चौदह पूर्वधर और सर्वोत्कृष्ट कोष्ठबुद्धि आदि मतिज्ञानविशेषसे सम्पन्न क्षपक श्रेणिपर आरूढ़ जीव होता है उसके दोनों कर्मोंका देशघातिस्वरूप ही अनुभागोदय होता है ।
किन्तु विकल श्रुतधर और विकल मतिज्ञानी क्षपकश्रेणिपर आरोहण करता है उस क्षपकके सर्वघातिस्वरूप अनुभागोदय जानना चाहिये क्योंकि उसके अधस्तन आवरणोंका देशघातिस्वरूप अनुभागोदय होने पर भी उपरिम आवरणोंका सर्वघातिस्वरूप अनुभागोदय सम्भव है ।
विकलश्रुतधारी क्षपकश्रेणिपर आरोहण नहीं कर सकता ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि दस और नौ पूर्वधारि जीव भी क्षपक श्रेणिपर आरोहण करते हैं ऐसा आचार्योंका उपदेश पाया जाता है।
इसी प्रकार अवधिज्ञानावरण आदि शेष प्रकृतियोंके विषय में भी समझ लेना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणको उत्तरोत्तर प्रकृतियोंकी विवक्षा के बिना भी देशघाति और सर्वघाति अनुभागका उदय सम्भव है ऐसा यहाँ जानना चाहिये, क्योंकि सब जीवोंमें इन प्रकृतियोंके क्षयोपशमका नियम नहीं देखा जाता ।
पांचवीं भाष्यगाथामें बतलाया है कि यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका यह क्षपक प्रतिसम अनन्त गुणवृद्धिरूप से वंदन करता है अन्तराय कर्मको यह क्षपक प्रतिसमय अनन्तगुणहानिरूपसे वेदन करता है तथा शेष कर्मो को छह वृद्धि और छह हानिमें से कोई एक वृद्धि और कोई एक हानिरूपसे तथा अवस्थितरूपसे वेदन करता है ।
ग्यारहवीं मूल गाथामें बतलाया है कि मोहनीय कर्मके स्थितिघात आदि कितने-कितने क्रियाभेद होते हैं ? यह कथन अकृष्टिस्वरूप संज्वलनकर्मों के कृष्टिस्वरूप किये जाने पर विवक्षित है । तथा शेष कर्मों के स्थितिघात आदि रूप कितने-कितने क्रियाभेद होते हैं ।
यहाँ प्रसंगवश इस प्ररूपणाको १ स्थितिघात, २ स्थितिसत्कर्म ३ उदय, ४ उदीरणा, ५ स्थितिकाण्डक, ६ अनुभागघात, ७ स्थितिसत्कर्म ८ अनुभागसत्कर्म, ९ बन्ध और १० बन्धपरिहानि इन दस क्रियाभेदोंद्वारा किया गया है ।