Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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श्रतिस्थापनाके हो जाने पर निक्षेप बढ़ता है, अतिस्थापना उतनी ही रहती है। यहाँ इतना विशेष जान लेना चाहिए कि जब तक अतिस्थापना एक श्रावलिसे कम रहती है तब तक व्याघातविषयक उत्कर्षण कहलाता है और पूरी एक श्रावलिप्रमाण अतिस्थापनाके होने पर निर्व्याघातविषयक उत्कर्षण होता है। अव्याघातविषयक उत्कर्षणमें अतिस्थापना कमसे कम एक श्रावलिप्रमाण और अधिकसे अधिक उत्कष्ट श्राबाधाप्रमाण होती हैं। तथा निक्षेप कमसे कम श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण और अधिकसे अधिक उत्कृष्ट श्राबाधा और एक समय अधिक एक श्रावलि न्यून उत्कृष्ट कर्मस्थितिप्रमाण होता है। व्याघातविषयक जयन्य अतिस्थापना कमसे कम श्रावलिके असंख्थातवें भागप्रमाण और अधिकसे अधिक एक समय कम एक श्रावलिप्रमाण होती है। तथा निक्षेप मात्र श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है।
मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रम यह स्थिति अपकर्षण और स्थिति उत्कर्षणका सामान्य स्पष्टीकरण है। आगे मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रमकी मीमांसा २३ अनुयोगद्वारोंका अवलम्बन लेकर की गई है और इसके बाद भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान इन अधिकारोंका अवलम्बन लेकर भी उसका विचार किया है। २३ अनुयोगद्वारोंके नाम ये हैं-श्रद्धाच्छेद, सर्व, नोसर्व, उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य, सादि, अनादि, ध्रव, अध्रव, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर, नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । यतः स्थिति जघन्य भी होती है और उत्कृष्ट भी होती है अतः इन अनुयोगद्वारोंके श्राश्रयसे विचार करते समय प्रत्येक अनुयोगद्वारको जघन्य और उत्कृष्ट इन दो भागोंमें विभक्त किया गया है। तथा स्थितिके अजघन्य भेदका जघन्यप्ररूपणाके अन्तर्गत और अनुत्कृष्ट भेदका उत्कृष्ट प्ररूपणाके अन्तर्गत विचार किया है। श्रद्धाच्छेदका प्रारम्भ करते हुए मात्र एक चर्णिसूत्र अाया है। शेष मूलस्थितिसंक्रमसम्बन्धी समस्त निरूपण जयधवला. टीका द्वारा किया गया है।
उत्तरप्रकृतिस्थितिसंक्रम
उत्तरप्रकृति स्थितिसंक्रममें २४ अनुयोगद्वार हैं। अनुयोगद्वारोंके नाम वही हैं जो मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रमके कथनके प्रसंगसे बतला पाये हैं। मात्र यहाँ एक सन्निकर्ष अनुयोगद्वार बढ़ जाता है। २४ अनुयोगद्वारोंके कथनके बाद भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान इन अधिकारोंका निरूपण होने पर उत्तरप्रकृति स्थितिसंक्रम समाप्त होता है।
प्रकृतियों की संक्रमसे उत्कृष्ट स्थिति दो प्रकारसे प्राप्त होती है—एक तो बन्धकी अपेक्षा और दुसरी मात्र संक्रमकी अपेक्षा । मिथ्यात्वका सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर और सोलह कषायोंका चालीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, अतः इनका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम श्रद्धाच्छेद क्रमसे दो श्रावलि कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर और दो श्रावलि कम चालीस कोड़ाफोड़ी सागर बन जाता है, क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होनेपर बन्धावलिके बाद उदयावलिसे उपरितन निषेकोंका ही संक्रम सम्भव है, अतः यहाँ उत्कृष्ट स्थितिसंक्रभ अद्धाच्छेदमें अपने-अपने उत्कृष्ट स्थितिबन्धमेंसे दो-दो श्रावलिप्रमाण स्थिति ही कम हुई है। किन्तु नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चालीस कोड़ाकोड़ीसागर नहीं होता, इसलिए इनका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम अद्धाच्छेद बन्धावलि, संक्रमावलि और उदयावलि न्यून चालीस कोड़ाकोड़ीसागर प्रमाण ही प्राप्त होता है। कारण स्पष्ट है। मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उकृष्ट स्थितिसंकम अद्धाच्छेद अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ीसागर प्रमाण ही होता है, क्योंकि जो मिथ्या