Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि-भुजगारका समुत्कीर्तना श्रादि १३, पदनिक्षेपका स्वामित्व श्रादि ३ और वृद्धिका समुत्कीर्तना आदि १३ अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे कथन करके इन अनुयोगद्वारोंके समाप्त होनेपर प्रकृति संक्रमस्थानकी समाप्तिके साथ प्रकृतिसंक्रम समाप्त किया गया है।
यहाँ प्रसङ्गसे इतना उल्लेख कर देना आवश्यक है कि कषायप्राभृतकी प्रकृति संक्रमस्थान सम्बन्धी २७ वीं गाथा से लेकर ३६ वीं गाथा तक १३ गाथाएँ श्वेताम्बर कर्मप्रकृतिकी इसी प्रकरण सम्बन्धी १० वीं गाथा से लेकर २२ वीं गाथा तक १३ गाथाएँ कुछ रचनाभेद और कहीं-कहीं कुछ पाठभेदके साथ परस्पर मिलती जुलती हैं।
- पाठभेदके उदाहरण इस प्रकार हैं कषायप्राभृत
कर्मप्रकृति गाथा० सं०३० दिट्ठीगए।
१३ दिट्ठी कए ,, ३१ विरदे मिस्से अविरदे य
१५ णियमा दिट्ठीकए दुविहे , ३३ संकमो छप्पि सम्मचे
१६ सुद्धसासणमीसेसु " ३५ अट्ठारस चदुसु होति बोद्धव्वा १८ अट्ठारस पंचगे चउक्के य यहाँ इतना और उल्लेख कर देना आवश्यक है कि कर्मप्रकृतिमें उसकी उक्त १३ गाथाओंमेंसे प्रारम्भकी २ गाथाओंको छोड़कर अन्तकी शेष ११ गाथाओंकी चूर्णि नहीं है। कषायप्राभूतमें भी यद्यपि उसकी २७ वी गाथा पर ही चूर्णिसूत्र उपलब्ध होते हैं पर वहाँ चूर्णिसूत्रों में प्रकृतिसंक्रमस्थानसम्बन्धी सभी गाथाओंकी सूत्रसमुत्कीर्तनाका स्पष्ट उल्लेख करके स्थानसमुत्कीर्तनामें एक गाथा आई है यह बतलाकर पुनः चूर्णिसूत्रोंमें २७ वीं गाथाको निबद्ध कर उसकी विशेष व्याख्या की गई है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि अचार्य यतिवृषभके विचारसे इन सभी मूल गाथाओंकी रचना गुणधर श्राचार्य ने ही की है।
स्थितिसंक्रम इस अधिकार में स्थितिसंक्रमके मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रम और उत्तरप्रकृतिस्थितिसंक्रम ऐसे दो भेद करके अर्थपदका व्याख्यान करते हुए बतलाया है कि स्थितिके अपकर्षित होने, उत्कर्षित होने या अन्य प्रकृतिमें संक्रमित होनेका नाम स्थितिसंक्रम है। उसमें भी मूलप्रकृतियोंकी स्थितिका उत्कषण और अपकर्षण तो होता है पर परप्रकृतिसंक्रम नहीं होता, क्योंकि एक मूल प्रकृति अन्य प्रकृतिरूप संक्रमित नहीं होती। तथा उत्तरप्रकृतियों की स्थिति का उत्कर्षण, अपकर्षण और अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण तीनों ही सम्भव है। इससे भिन्न स्थिति असंक्रम है यह तो स्पष्ट ही है। अर्थात् मूल या उत्तरप्रकृतियों की जिस स्थिति का संक्रम नहीं होता है वह स्थिति असंक्रम कहलाती है। . स्थिति अपकर्षण-श्रागे स्थिति अपकर्षण का विचार करते हुए सर्वप्रथम उदयावलीसे उपरिम समयवर्ती स्थिति का अपकर्षण होने पर उसका निक्षेप किन स्थितियों में होता है और कौन स्थितियाँ प्रतिस्थापनारूप होती है इसका विचार करते हुए बतलाया है कि उदयावलीसे उपरिम समयवर्ती स्थितिका अपकर्षण होने पर उसका निक्षेप उदय समयसे लेकर उदयावलीके त्रिभाग तक होता है और उसके ऊपरके दो त्रिभाग अतिस्थापनारूप रहते हैं। किन्तु श्रावलिका प्रमाण कृतयुग्म असं होनेठे उसका अखंडरूप त्रिभाग प्राप्त करना शक्य नहीं हैं, इसलिए जयधवलामें बतलाया है कि बाबलिक प्रमाणमेंसे एक कम करके त्रिभाग करने पर जो लब्ध श्रावे उसमें एक मिला दे। यह तो निवेपका प्रमाण है और इसके सिवा शेष (एक कम प्रावलिके दो त्रिभाग मात्र) अतिस्थापनाका
। विसमें अपकर्षित द्रव्यका क्षेपण होता है उसका नाम निक्षेप है और निक्षेप तथा संक्रम