Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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प्राचार्य यतिवृषभने इन गाथाओं में से प्रथम गाथापर ही चर्णिसूत्र लिखे हैं। उसमें भी इसका व्याख्यान करनेके पहले इस प्रकरणसम्बन्धी अनुयोगद्वारोंका नामनिर्देश किया है-स्थानसमुत्कीर्तना, सर्वसंक्रम, नोसर्वसंक्रम, उत्कृष्ट संक्रम, अनुत्कृष्ट संक्रम, जघन्यसंक्रम, अजघन्यसंक्रम, सादिसंक्रम, अनादिसंक्रम, ध्रुवसंक्रम, अध्रुवसंक्रम, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, सन्निकर्ष, अल्पबहुत्व तथा भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि ।
इसके बाद प्राचार्य यतिवृषभने २७ संख्याक प्रथम गाथाका व्याख्यान करते हुए अपने चूर्णिसूत्रों द्वारा २८, २४, १७, १६ और १५ प्रकृतिकस्थान क्यों संक्रमस्थान नहीं हैं और शेष संक्रमस्थान कैसे हैं इसका विस्तारके साथ खुलासा किया है। २८ से लेकर ५८ संख्या तककी शेष ३१ गाथाश्रोंका विशेष स्पष्टीकरण जयधवला टीका द्वारा किया गया है। श्रागे पूर्वोक्त अनुयोगद्वारोंका व्याख्यान प्रारम्भ होता है। उसमें भी स्थानसमुत्कीर्तना अनुयोगद्वारका व्याख्यान प्रथम गाथाके व्याख्यानके प्रसंगसे चूर्णिसूत्रोंमें पहले ही आ गया है, इसलिए यहाँ मात्र जयधवला द्वारा उसका. व्याख्यान करते हुए बतलाया है कि श्रोघसे २७, २६, २५, २३, २२, २१, २०, १६, १८, १४, १३, १२, ११, १०, ६,८,७, ६, ५, ४, ३, २, और १ ये २३ संक्रमस्थान हैं । साथ ही इनमेंसे किस गतिमें कितने संक्रमस्थान होते हैं यह भी बतलाया है .
श्रागे जयधवलामें यह सूचना करके कि यहाँ सर्वसंक्रम, नोसर्वसक्रम, उत्कृष्टसंक्रम, अनुत्कृष्टसंक्रम, जघन्यसंक्रम और अजधन्यसंक्रम ये स्थान संभव नहीं हैं इसके बाद सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवानुगमका व्याख्यान करते हुए बतलाया है कि २५ प्रकृतिक संक्रमस्थान सादि अादि चारों प्रकार का है, शेष संक्रमस्थान सादि और अध्रुव ही हैं ।
एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व-इस पर मात्र एक चूर्णिमूत्र है। श्रोध और चारों गतियों की अपेक्षा संक्रमस्थानोंके स्वामीका विशेष निर्देश जयधवला टीका द्वारा किया गया है।
___एक जीव की अपेक्षा काल- इसमें चूर्णिसूत्रों द्वारा श्रोधसे एक जीव की अपेक्षा काल का , विचार किया है। चारों गतियोंसम्बन्धी विशेष व्याख्यान जयधवला टीकामें आया है।
एक जीव की अपेक्षा अन्तर-इसमें पूर्वोक्त विधि से अन्तर का कथन किया है। - नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय-यहाँ भी चूर्णि में जिनके प्रकृतियों की सत्ता है उन्हीं का अधिकार है यह बतला कर भंगविचय का निरूपण हुश्रा है। जयधवला में श्रोध से कुल भंगों का योग ३८७४२०४८६ बतलाया है।
भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र और स्पर्शन अनुयोगद्वारों पर चूर्णिसूत्र नहीं हैं। जयधवला में उच्चारणाके अनुसार इनका व्याख्यान श्राया है जो नामानुसार है।
नाना जीवों की अपेक्षा काल-इसमें किस स्थान के संक्रामक का कितना काल है यह नाना जीवों की अपेक्षा चूर्णि और जयधवला टीका द्वारा बतलाया गया है।
नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर- इसमें किस स्थानके संक्रामकोंका कितना अन्तर है यह नाना जीवों की अपेक्षा बतलाया है।
___ सन्निकर्ष-एक संक्रमस्थानके सद्भावमें दूसरा संक्रम स्थान संभव नहीं इसलिए सन्निकर्षका निषेध किया है।
भाव-इसमें सब संक्रमस्थानोंके संक्रामक जीवों का श्रौदयिक भाव है, क्योंकि उदयको निमित्त कर ही संक्रम होता है यह बतलाया है।
अल्पब हुत्व-इसमें सब संक्रमस्थानोंका अल्पबहुत्व बतलाया गया है।