Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 12
________________ [9] एक जीवकी अपेक्षा काल-इसमें एक जीवकी अपेक्षा २८ प्रकृतियोंके संक्रमके कालका निर्देश किया गया है। उदाहरणार्थ मिथ्यात्वके संक्रमका जधन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर बतलाया है। जयधवला टीकामें श्रोघसे और प्रादेशसे चारों गतियों में एक जीवकी अपेक्षा २८ प्रकृतियों के संक्रमका काल तो बतलाया ही है। साथ ही इनके असंक्रमका भी जघन्य और उत्कृष्ट काल बतलाया है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर-इसमें एक जीवकी अपेक्षा २८ प्रकृतियोंके संक्रमके अन्तरकालका विधान किया है। उदाहरणार्थ मिथ्यात्व और सम्यकत्व इन दो प्रकृतियोंके संक्रमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट अन्तर उपाधपुद्गलप्रमाण बतलाया है तथा जयधवला टीकामें चारों गतियों में भी एक जीवकी अपेक्षा सब प्रकृतियोंके संक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर बतलाया है। नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचय-इस अनुयोगद्वारका प्रारम्भ करते हुए चूर्णिसूत्रमें नाना जीवोंसे कौन जीव लिये गये हैं ऐसी शंकाको ध्यानमें रखकर सर्वप्रथम यह सूचना की है कि जिन जीवोंके मोहनीय कर्मप्रकृतियोंकी सत्ता है वे ही यहाँ प्रकृत हैं। उसके बाद मिथ्यात्व श्रादि २८ प्रकृतियोंके संक्रामकों और असंक्रामकोंको ध्यानमें रखकर जहाँ जितने भंग सम्भव हैं उनका निर्देश किया है। जयधवला टीकामें चारों गतियों में इसका विचार अलगसे किया है। ___ भागाभाग-परियाण-क्षेत्र-स्पर्शन-इन चारों अनुयोगद्वारों पर चूर्णिसूत्र नहीं हैं। मात्र उचारणाके अनुसार जयधवला टीकामें इनकी मीमांसा की गई है । भागाभागमें २८ प्रकृतियोंमेंसे प्रत्येक प्रकृतिके संक्रामक और असंक्रामक जीव सव जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं यह बतलाया है। परिमाणमें २८ प्रकृतियोंमेंसे प्रत्येक प्रकृतिके संक्रामक जीवोंकी संख्या अोघसे और चारों गतियोंमें कहाँ कितनी है यह बतलाया है। इसी प्रकार क्षेत्र अनुयोगद्वारमें क्षेत्रका और स्पर्शन अनुयोगद्वारमें स्पर्शनका विचार किया है। नाना जीवोंकी अपेक्षा काल-इसमें नाना जीवोंकी अपेक्षा प्रत्येक प्रकृतिके संक्रमका काल सर्वदा बतलाया है । जयधवला टीकामें चारों गतियोंमें भी कालका निर्देश किया है । नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर- इसमें चूर्णिसूत्र और जयधवला टीका द्वारा उक्त पद्धतिसे अन्तरका विधान किया है। सन्निकर्ष- इसमें किस प्रकृतिका संक्रामक किस पद्धतिसे किस प्रकृतिका संक्रामक या असंक्रामक होता है यह बतलाया है । जयधवलामें चारों गतियोंकी अपेक्षा अलगसे व्याख्यान किया है। भाव-इसपर चूर्णिसूत्र नहीं हैं । जयधवलामें बतलाया है कि सर्वत्र एक औदयिक भाव है। अल्पबहुत्व-इसमें प्रत्येक प्रकृतिके संक्रामक जीवों की अपेक्षा अल्पबहुत्वका निर्देश किया है । यहां इतना विशेष जानना चाहिए कि श्रोघसे अल्पबहत्वकी प्ररूपणा चूर्णिसूत्रों द्वारा तो की ही है, चारों गतियों और एकेन्द्रिय मार्गणाकी अपेक्षा भी अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा चूर्णिसूत्रों द्वारा की गई है। प्रकृतिस्थानसंक्रम इस अनुयोगद्वारके प्ररूपणमें २७ से लेकर ५८ तक ३२ गाथाएँ श्राई है। इनमें संक्रम स्थान कितने हैं और वे कौन-कौन हैं, प्रतिग्रहस्थान कितने हैं और वे कौन कौन हैं, किन संक्रमस्थानोंका किन प्रतिग्रहस्थानोंमें संक्रम होता है, इनके स्वामी कौन हैं, इनकी साद्यादि प्ररूपणा किस प्रकारकी है और एक तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा काल आदि क्या. हैं इन सब बातोंमेंसे किन्हींका स्पष्ट खुलासा किया है और किन्हींका संकेतमात्र किया है।

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