________________
स्व विचारबिन्दु
" ज्योतिषामयनं चक्षुः " एक आर्षवाणी अनुसार शास्त्र का नयन ज्योतिषशास्त्र है । जिनेश्वर परमात्मा ने समस्त जीवों के आत्मकल्याण हेतु गणधर भगवंत के माध्यम से शास्त्ररूपी अमृतवाणी द्वारा अनन्त काल के लिये पथप्रदर्शक का काम किया है । आज बदलते कालचक्र में इतर शास्त्रों का सृजन, संशोधन-संपादन विशेष रूप से पाया जाता है । लोगों का झुकाव भी उस तरफ अधिक है । अनमोल मानवभवतारक जिनवचन ही हमारे लिये आत्मकल्याणकारी शास्त्र है । इसे प्राणपण से बचाने का हमारा ध्येय होना चाहिये । परंपरा से प्राप्त श्रुतसंपदा के प्रति यदि हम जागरुक न होंगे तो ये शास्त्र काल के गाल में चले जायेंगे । मुझे यह बताते हुए अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है कि अपने गुरुजनों के पदचिह्न पर अग्रसर होते नवोदित मुनि भगवंतों का शास्त्रोद्धार के प्रति समर्पण अवश्य ही श्रुत संरक्षण व संवर्धन की दिशा में एक नया सोपान है ।
तीर्थंकर परमात्मा ने मानव जीवन व्यवहारोपयोगी शास्त्रों को भी अपनी अनुपम देशना का विषय बनाकर हमारे उपर उपकार की वर्षा की है। कोई ऐसा विषय नहीं जो जिनागम में समाया न हो ।
पूर्वाचार्य वल्लभीयाचार्य प्रणीत प्रस्तुत ग्रंथ सूर्यप्रज्ञप्ति पंचम उपांगसूत्र का सारांशरूप “ज्योतिष्करंडक” ज्योतिषशास्त्र का एक प्रामाणिक एवं प्राचीन ग्रंथ है । इसके ऊपर पूज्य आगम टीकाकार आचार्य श्री मलयगिरिसूरि म.सा. की टीका सुवर्ण में सुगंध के समान है । प्रान्तीय गुजराती भाषाभाषी के लिये गुर्जरभाषानुवादमय यह प्रकाशन एक अलौकिक का विषय है । ज्योतिष के जिज्ञासुओं के लिये यह अतीव उपयोगी सिद्ध होगा । इसमें वर्णित कालगणना, भौगोलिक वर्णन आदि सभी विषय अपने आप में अद्भुत है ।
अंत में अनुवाद सर्जक मुनि श्री पार्श्वरत्नसागरजी को मंगलाशीषपूर्वक इनके कार्य की भूरि-भूरि अनुमोदना करता हूँ । चरम तीर्थपति श्रीमहावीरस्वामी भगवान इनमें इस प्रकार शक्ति व प्रवृत्ति दें, जिससे भविष्य में इनके द्वारा अधिक से अधिक प्राचीन दुर्लभ ग्रंथरत्नों का उद्धार हो ।
-
- पू. श्री भुवनपद्मसागरजी म.सा.