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इस प्रकीर्णक पर आचार्य श्री मलयगिरिसूरिजी से पूर्ववर्ती महान जैनाचार्य श्री पादलिप्तसूरिजी ने भी प्राकृत भाषाबद्ध प्रौढ टीका रची थी ऐसा उल्लेख श्री मलयगिरीय टीका में प्राप्त होता है।
गुजराती भाषा में सर्वप्रथम बार इस ग्रंथ का अनुवाद करनेवाले मुनिराज श्री पार्श्वरत्नसागरजी महाराज ने एक स्तुत्य प्रयास किया है अतः इनके इस अनुमोदनीय कार्य के लिए मैं खूब खूब धन्यवाद देता हूँ। गुजराती भाषा के माध्यम से अभ्यास करनेवाले पूज्य साधु-साध्वीजी एवं जिज्ञासु जन इस अनुवाद के आलंबन से स्वाध्याय का अपूर्व लाभ प्राप्त करेंगे ऐसी कामना करता हूँ।
वर्तमान समय चूंकि सर्वश्रेष्ठ ज्ञान-विज्ञान का समय है। प्रबुद्ध नागरिकों में सर्वश्रेष्ठ ज्ञान की जबरदस्त भूख जगी है। ऐसे माहौल में श्रुतज्ञान के क्षेत्र में हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा विरचित विशाल साहित्य विद्यमान है जो पांडुलिपियों में संगृहीत होने से संपादन-संशोधन के द्वारा प्रकाशित करने योग्य है । इस दिशा में उत्साही मुनिवरों एवं विद्वानों की प्रवृत्ति धीरे धीरे वेगवती होती जा रही है। इसी के कारण आनेवाले काल में विचारवंत-ज्ञानवंत जैन समाज का सृजन होगा ऐसा मेरा विश्वास है । इसी परिप्रेक्ष्य में श्रुतज्ञान के संरक्षण संवर्धन व आधुनिक टेकनोलोजी के जरिये जैन साहित्य विस्तारित करके ज्ञानार्जन के नये नये आयाम खोलने होंगे, जिससे विद्वानों को श्रुत संपादन के संशोधन आसानी से सुलभ हों । उनकी श्रुतसेवा की महान प्रवृत्ति को अधिक बल प्राप्त हों । ___गुजराती के इस भाषांतर का साद्यंत अवलोकन करके मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई । ऐसा सुंदर अनुवाद का आगम स्वाध्यायी मुनिवरों एवं विद्वान जगत में खूब आदर होगा यह निःशंक बात है । श्रुत-साहित्य के उपासक मुनिवर का यह प्रयास खूब उपयुक्त है और श्रुतप्रेमी आराधकों के लिए आनंद और सौभाग्य की बात है।
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11-10-19 KOBA