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ज्योतिष्करंडकः विहंगावलोकन
जैन वाङ्मय में ज्योतिष्करंडक प्रकीर्णक की गणना आगम साहित्य में होती है। विशेष कर 84 आगमों में इसका निर्देश हुआ है। इस ग्रंथ में कालज्ञान का सारभूत विषय प्रतिपादित किया गया है । षड्द्रव्यों में एक समय स्वरूप काल को भी द्रव्य माना है। सर्वज्ञ भगवंत ने व्यवहारनय से काल की विभावना भूत-भावि और वर्तमानरूप एवं संख्यात- असंख्यात व अंतरहित-अनंत की गई है। इस प्रकरण का मूल-स्रोत सूर्यप्रज्ञप्ति उपांग है । उसी के आधार से इसका निरूपण किया गया है ऐसा इस ग्रंथ के टीकाकार श्री मलयगिरिजी ने टीका में बताया है। सूर्यप्रज्ञप्ति आदि आगम ग्रंथों में काल द्रव्य का खूब विस्तार से विवेचन किया गया है परंतु वह तीव्र बुद्धिगम्य है। इसीलिए बालजीवों को यह विषय सरल और सुबोध बने ऐसी उपकारक अभिलाषा से किसी अज्ञात श्रुतस्थविर आचार्य भगवंत ने इस प्रकरण की रचना की है।
काल ज्ञान को जानने की जिज्ञासा वाले मुमुक्षु के लिए ग्रंथकार ने इसमें काल विषयक संवत्सर प्रमाण, अधिक मासोत्पत्ति इत्यादि 21 अधिकारों में सुंदर मार्गदर्शन किया है । इस प्रकीर्णक के रचयिता वलभी परंपरा के आचार्य है ऐसा प्राचीन ग्रंथकारों ने माना है। समर्थ टीकाकार श्री मलयगिरीसूरिजी ने इस प्रकीर्णक पर पांच हजार श्लोक प्रमाण विद्वद्भोग्य टीका रची है। आचार्य श्री मलयगिरिजी टीका में बताते है कि यह कालज्ञान समास शिष्यों के विशिष्टबोध हेतु प्राचीन आचार्यों ने सूर्यप्रज्ञप्ति के आधार से तैयार किया है, परंपरा से सर्वज्ञ कथित होने के कारण यह ज्ञान विद्वानों के लिए अवश्यमेव उपादेय है । ग्रह-नक्षत्रादि ज्योतिष के चराचर भावों को बतलाने वाला यह अनुपम आगमिक ग्रंथ है । इसके अवबोध से आराधक जीव रत्नत्रयी की साधना में विशेषरूप से उपयोगवंत बनता है अतः परंपरा से मोक्षगामी होता है यह बात सुस्पष्ट है ।