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(त) कृतज्ञ हैं। इन के ही विशिष्ट प्रबंध से लाहौर में हम लोग घर से भी अधिक सुखी रहे,तथा संपादनोपयोगी पुस्तकें भी पर्याप्त रूप से समय पर मिलती रहीं, एवं संपादन संबंधी विचार विनिमय भी होता रहा । और अनेकविध घरेलू कार्यों में व्यस्त रहने पर भी वे प्रफ आदि के देखने में सहायता देते रहे।
अन्त में हम अपने आसन्नोपकारी स्वर्गीय आचार्य श्री के पट्टधर परमपूज्य आचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि जी महाराज की असीम कृपा के सब से अधिक आभारी हैं । आप श्री के अमोघ आशीर्वाद के प्रभाव से ही हम इस महान् कार्य को निर्विघ्न समाप्त करने में सफल हुए हैं । तथा आप श्री की पुनीत सेवा में श्री रामचंद्र जी के प्रति कही हुई हनुमान की___ शाखामृगस्य शाखायाः शाखां गंतुं परिश्रमः ।
यदयं लंघितोऽम्भोधिः प्रभावस्ते रघूत्तम ।।
इस उक्ति को दोहाराते हुए प्रस्तुत ग्रन्थ में सम्पादन संबन्धी आई हुई त्रुटियों के लिये पुनः क्षमा मांगते हैं ।
लाहौर फाल्गुन शु. १०
( विनीत
सं. १६६२ )
( हंसयुगल