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न होने से दूसरे भाग में तो निर्धारित संशोधन भी हम नहीं कर पाये। अतः विवशता के कारण प्रस्तुन ग्रंथ के सम्पादन में रही हुई अनेक त्रुटियों के लिये हम अपने सभ्य पाठकों से सांजलि क्षमा मांगते हैं।
संशोधन' प्रस्तुत पुस्तक के संशोधन के विषय में भी हम दो शब्द कह देना आवश्यक समझते हैं।
(१) ग्रंथ की मूल भाषा में किसी प्रकार का परिवर्तन नही किया । सिर्फ विभक्तियों में किंचित् मात्र परमावश्यक आंशिक परिवर्तन किया गया है, जैसे
संशोधित उस कुं
उस को सर्वजीवां कुं
सर्व जीवों को धर्मीपणे
धर्मापने लौकिक में
लोक में पढ़णे
पढ़ने
मूलपाठ
फेर
-
।
।
फिर
तथा कहीं कहीं पर उक्त संशोधित पाठ भी मूल में विद्यमान हैं।
(२) प्रेस तथा अन्य किसी कारण से उल्लेख में आई हुई असम्बद्ध वाक्य रचना में विषय के अनुसार कुछ शब्दों की न्यूनाधिकता की गई है। . . (३) प्रमाण रूप उद्धृत किये गये प्राकृत और संस्कृत के