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जेनतत्त्वमीमांसा
अपने कालमें होते हैं ऐसा लिखा है और कहीं निमित्तको प्रधानतासे कार्योंका अनियम बतलाया है सो यहाँ भी ऐसा समझना चाहिए कि प्रत्येक कार्यका उपादान अनन्तर पूर्व पर्याय विशिष्ट द्रव्य होता है, अतएव अगले समयमें कार्य भी उसीके अनुरूप होगा । कार्यकी उत्पत्तिके समय निमित्त उसे अन्यथा नही परिणमा सकेगा, इसलिए जो उपादानकी अपेक्षा कथन है वह यथार्थ है और जो निमित्तकी अपेक्षा कथन है वह यथार्थ तो नही है परन्तु वहाँ पर निमित्त क्या है यह दिखलानेके लिए वैसा कथन किया गया है । अतएव ऐसे स्थलों पर भी जहाँ जिस अपेक्षासे कथन हो उसे समझकर वस्तुको स्वीकार करना चाहिये ।)
इसी प्रकार और भी बहुतसे विषय हैं जिनमें वस्तुका निर्णय करते समय और उनका व्याख्यान करते समय विचारकी आवश्यकता है । हमें प्रसन्नता है कि 'जैनतत्त्वमीमांसा' ग्रन्थमें पण्डितजीने उन सब विषयोंका समावेश कर लिया है जिनमें तत्त्वजिज्ञासुओंकी दृष्टि स्पष्ट होनेकी आवश्यकता है । इस दृष्टि से यह पुस्तक बहुत ही उपयोगी बन गई है । इसकी लेखनशैली सरल, सुस्पष्ट और सुबोध है । पण्डितजी के इस समयोपयोगी सांस्कृतिक, साहित्यिक सेवाको जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है ! हमें विश्वास है कि समाज इससे लाभ उठाकर अपनी ज्ञानवृद्धि करेगी ।
जैन शिक्षा संस्था कटनी
जगन्मोहनलाल शास्त्री