Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1910 Book 06
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference
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એક આશ્ચર્યજનક સ્વપ્ન. '
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मीलाकर जो रसेपन्नको प्राप्त हो जवे तो अवश्यमेव मदोन्मत्त हस्तिकों बांध सकते हैं. तैसेही जो बहुत पुरूष मीलकर किसी कार्यको करना चाहेतो निःसंशय वह कार्य शिघ्र तथा निर्धनतासे सम्पूर्ण हो सकता है. ___ हे वत्स देख संप रखनेसें जा फायदा होताहै. वह मैं तुझे एक छोटेसे दृष्टांतसे बता देती हूं.
जो पुरुष तास ( Playing Cards) का खेल खेलते हैं, उन्हें भली प्रकार मआलुम होगा कि, दुर्रा को तीरी ले जाया करती है, एवं दस्सीतक क्रममें समझले. जे. दसजने एक हो तो अकेठा बादशाहका गुल म उन्हें ले जा सकताहै. गुलाम को बाबी तथा बीबीको बादशाह लेजाता है. परं “ एक्का" ( Unity. ) कातनी बड़ी चीजहैं. सो सर्व का अपने वसमें कर सकता है,
हे भाई ! मुख्य करके यह कुसंप किस कारणसे होता है सो तुझे मआलुमहै क्या ? | मैं--- हे मातेश्वरी, कृपाकर आपही बताइये. मैत्रि-हे भाई, तु ध्यानपूर्वक सुन, मै कहती हूं. हे वत्स! जितना यह कुसंर पड रहा है वह केवल मात्र अविद्याहीका कारण है. आजकाल जे जैन जातिके अंदर विद्य की दुर्दशा हो रहीहै सो कुछ तुझसे छुपी नहीं है! थोडास नाम मात्रका गाणत तैयार हुवाके एकदम दुकानों पर व्यापार करनेको बच्चों को बिठा देते हैं, परंतु मेरे प्यारे भाई! इतन भी नहीं समझते कि, युवावस्थामें वह लडके सिवाय पछतानेक कुछभी नहीं कर सकेंगे.
जो पुरुष राजभ षा तथा धार्मिक विद्याका अभ्यास कर लेते हैं वह कैसे सुख चेन उडाते हैं ? और उनको सर्वत्र इजतभी होती है. देख किसी कविने कहाहै:
श्लोक विद्वतं च नृपत्वं च , नैव तुल्यं कदाचन ।
स्वदेशे पूज्यते राजा , विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥ ३ ॥ भावार्थ:-विद्वताकी और राजापनकी बराबरी हो नही सक्ती. सबब कि, राजा तो केवल अपने देश मेंही मान पाता हैं किंतु विद्वान् तो सर्वत्र प्रतिष्ठाको पात है.
आज कल जोकि, कितनीक पाठशाळाओंमें केवल धार्मिक या केवल व्यवहारिक शिक्ष दोज ती है, सो ठीक नहीं. कारण कि, जहांतक दोनोंही विद्या पद्धति सहित नहीं दी जावेगी तहांतव जैन जातिका उदय होना मुशकिल है देख, जो पुरूप व्यवहारिक शिक्षाक तर्फभी नही देखते उनको कैसी दुर्दशा होती है? विच रेंको शुद् लि वना तक नहीं आता. और कई वखत अर्थका अनर्थकर देतें. जिस पर कि, मैं तुझे एक छोटासा दृष्टांत बताती हुँ:--