Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1910 Book 06
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference

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Page 406
________________ જૈન કેન્ફરન્સ હેરલ્ડ, [डीसेम्बर लाखो श्रीमान मौजूद हैं. उफ ! श्रीमानोका इतना नंबर होते हुवे भी हमारे गरीब जैनोपर भीख तक मांगने का मौका आ जाता है. ३२८] हे भाई, श्रीमान् लोग अपने घरोंमे माल मलिदे उड़ाते हैं परंतु जब कोई गरीब स्वधर्मी भाई उनके मकानपर आकर कुछ याचना करें तो उनके साथ बड़ेही तिस्कारसे पेश आते हैं, वे धनवान लोग श्रीमानोको तो कदाच मदद दे भी देते हैं, मगर गरीबो को नही देते. देख नीति शास्त्र वाले क्या कहते हैं : श्लोक. दरिद्रान्मर कौन्तेय मा प्रयच्छेश्वरेधनम् | व्याधि तस्यौषधं पथ्यं नीरुजस्य किमौषध ॥ १ ॥ अर्थ - हे युधिष्ठिर, दरिद्रोंका पोषण करो, न कि श्रीमानोका; सबबकि व्याधिग्रस्त पुरुषको औषधीसे फायदा होता है निरोगी को नही ॥ १ ॥ हे भाई, अपने शास्त्रोमे जो स्वधर्मी वात्सल्यताका अधिकार चलता है उसका मतलब केवल लड्डु पेड़े बनाकर खाजानेका नहीं है. सच्चा स्वधर्मी वात्सल्य ते' उसे उसे कहते हैं कि गरिब जैन भाईयोकी परवरिश करना. हे वत्स, न मालुम आजकल जैनियोके करुणामय चित्त क्योंकर के कठार होगये ? जबकि हम पूर्व जमाने की तर्फ दृष्टि करते हैं तो तेजपाल वस्तुपाल सरीखं महान् मंत्रीश्वर, गधाशाह, भेसाशाह तथा विमलशाह सरीखे बड़े २ शेठ और कुमारपालादि बडे २ राजा आज याद आते हैं. आज के समयम उनकी बराबरीतो क्या मगर उनके रजकी बराबरी भी कर नही सक्ते. हे पुत्र, पहिले के लोग जब कभी अपने जैन भाईयोको खराब स्थिति मे देखतेथे तब अपने समान बनानकी कोशीस करतेथे, देख मै तुझे एक छोटासा दाखला बतादेतीहु: ---- इसी प्रसिद्ध मालव देशमें मांडवगड़ नामका एक पवित्र तीर्थ स्थान है. वहां पर पूर्व जमानेमे नवलाख जैनियोकी वस्तीथी, और एक २ जैनके पास

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