Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1910 Book 06
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference
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१७१० ]
એક ઔર્યજનક સ્વપ્ન.
The common Lord of all that move, From whom Thy being flowed, A portion of His boundless love, On that poor worm bestowed. The sun the moon the stars He made. To all his creatures free,
3.
And spread over earth the grassy blade, For worms as well as thee. Let them enjoy their little day, Their humble bliss receive, O, do not lightly take away, The life thou can'st not give.
और भी देख नीतिशास्त्रवाले क्या कहते हैं:
श्लोक.
सर्वहिंसानिवृत्ताय, ये नरा सर्वसहाश्च । सर्वस्याश्रयभूताश्च ते नराः स्वर्गगामिनः ॥
हे वत्स ! इनके सिवाय जैनशास्त्रोंका प्रमाणभी सुन :
श्लोक.
2.
यदि मावा तोये तरति तरणियेयुदयति, 'प्रतीच्यां सप्तार्चिर्यदि भजति शैत्यं कथमपि ।
4.
भावार्थ:-जो मनुष्य सर्व प्रकारकी हिंसाओ करके रहित, सहासी तथा सर्व जीवोंके आश्रयभूत
हैं वे स्वर्ग ( देवलोक ) में जाते हैं.
૩૫
यदि क्ष्मापीठं स्यादुपरि सकलस्याऽपि जगतः,
प्रसूने सत्त्वानां तदपि न वधः क्वाऽपि सुकृतम् ॥
भावार्थ:- जो कभी पत्थर पानीमें तिरे जाय, सूर्य पश्चिममें निकल जाय, अमि शीतलपनकों प्राप्त हो जाय और पृथ्वी समस्त जगतके ऊपर हो जाय तो भी प्राणियोंकी हिंसासें कदापि पुण्यका बंधन नहीं हो सक्ता और भीः
श्लोक.
स कमलवनमग्नेर्वासरं भास्वदस्तादमृतमुरगवक्त्रात्साधुवादं विवादात् । रुगपगममजीर्णाज्जीवितं कालकूटादभिलषति वधाद्यः प्राणिनां धर्ममिच्छेत् ॥
भावार्थ-जो पुरुष प्राणियोंकी हिंसा करके धर्मकी इच्छा करता है वह अभिसें कमळब नकी, सूर्यास्त से दिवसकी, सर्पके मुखसें अमृत, विवादसें अच्छी भाषा, अजीर्णसें आरोग्यता और हलाहलसें जीवनेकी इच्छा करता है.
बस तो निश्चय होगया कि जो सच्चा वीर परमात्माका पुत्र है उसको यह कार्य कदापि नहीं करन चाहिये. हे भाई ! किसकों कहें सर्वलोग अपने २ एंढही में पड़े रहते है, अफसोस.
( अपूर्ण )