Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1910 Book 06
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference
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જેન કોન્ફરન્સ હેરલ્ડ.
[सेम्प२.
हे प्रिय पुत्र, यदि तूं दीर्घदृष्टि से सोचेगा तो तुझे मालुम होजावेगा कि आजकल लोग बड़े २ उहदोपर मुकर्रर हो जाते हैं तथा बडी २ पदवीयोको धारन करते हैं वे हमारे गरीब भाईयोंके सामने तक देखनेसे शरमाते हैं बलके मौका पडनेपर दूसरोंकी राह रखकर हमारे स्वधर्मी भ्राताओको नुकसानमें डाल देते हैं. जब कभी गरीब जैनियोसे नुकसान बनि आता है तब उनपर क्षमा नहीं करते हुवे बडा भारी इलजाम लगा देते है वे लाग जो ये बाते करतेहैं सो केवल अपने बड़प्पनमें अंधे होकर करतेहैं, देख नीतिशास्त्रवाले तो यह कहते हैं:
श्लोक.
विपति धैर्यमथाभ्युदये क्षमा, सदास वाक्पटुता युधि विक्रमः । यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ,
प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ॥ १ ॥ अर्थ:-निम्न लिखित बाते महात्माओंको प्रकृतिसे ही सिद्ध रहती हैं:विपत्तिमे धैर्य, महत्पद पानेपर क्षमा, सभामे वाणीकी चतुराई, युद्धमे पराक्रम यशमें रुचि, तथा धर्मशास्त्र श्रवण करनेमे व्यसन.
हे पुत्र ! उहदा मिलनेपर जो लोगोंके खयाल होजातेहैं उसका मै तुझे एक छोटासा दृष्टांत कहतीहुं सो लक्षपूर्वक सुन.
एक नगरमे दो मित्र रहते थे वे दोनोही बड़े गरीबथ. बचपनमें उनके माता पिताके मरजानेसे वे निराधार होगयेथे. कितनेक दिनोके पश्चात् उनमेंसे एक मित्र पड़ लिखकर हुशियार होगया और दूसरा कर्मवश वैसाही मूर्ख रहगया. _ थोडेही समयमे वह विद्वान मित्र एक देशका दीवान हो गया परंतु सबब कि वह जन्मका दरिद्री था, उस पदके पानेसे अभिमान वश हो गया.