Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1910 Book 06
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference
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माश्चर्यन वन
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सक्ती है। बडे असह्य दुःखोंको सहन करती है. तथा उन बिचारयोंपर कोइभी रहम न करता. हाय हाय ! ! कितना गजब अरे जैनीयों चेतोरे चेतो !! अब कुंभकर्णकी निद्र सोनेके दिन नहीं हैं, बिचारी निर्दोष बालाओंको दुःखसे छुडामोरे छुडाओ.
हे भाई वह मंदबुद्धि माता, पिता अपने धनके लोभने तेरा चौदा वर्षकी लडकी एक ऐसे साठ सत्तर वर्षके बुढ़े के साथ व्याह देते हैं. जो कि, शायत शदीके बाद थोडे कालमें मृत्युको प्राप्त होनेवाले हों, परंतु उन्हे इतनाभी खयाल नहीं होता कि, बिचारी व लडकी सारा जन्म कैसे व्यतीत कर सकेगी.
भला भाई । जबके हमारे शास्त्रोंमें यह कर मान है कि सर्व प्राण ओंपर दया करन तो न मालुम मेरे भाई इस जगह उस बातको भूल गये अथवा कुछ स्मर्ण रखकर बेठे हुवे है अगर भूले हो तो लीजिये सुनिये:----
श्लोक क्रीडाभूः सुकृतस्य दुष्कृतरजःसंहारवात्याभवोदन्वनार्यसनाग्रिमेघपटली संकेतदूती श्रियाम् । निःश्रेणिस्त्रिदिवौकसः प्रियसखी मुक्तेः कुगसर्गला
सत्वेषु क्रियतां कृपैव भवतु क्वशैरशैषैः परैः ॥९॥ अर्थ- कविराज आशिर्वाद देते है:-जीवोंपर दया करनेसे समस्त दोषोंसे दूर होवे वह जीवदया कैसी है? सुकृनके क्रीडाका स्थान, दुःष्कृत रूप रजको दूर करनेमे वायु समान भवरूपी समुद्रसे तारनेमे नौकारूप, व्यसन रूपी अग्निके लिये मेक्का समूह, लक्ष्मीको संकेर करनेमे दूती समान, स्वर्गमे लेजानेको सीडी समान, मुक्तिकी प्रियसखी और दूर्गत के लिये भाण रूप और भी: -
श्लोक आयुर्दीर्घतरं वपुर्वरतरं गोत्रं गरीयस्तरं । वित्तं भूरितरं बलं बहुतरं स्वामित्वमुच्चैस्तरम् । आरोग्यं विगतान्तरं त्रिजगति श्लाध्यत्वमल्पेतरम् । संसाराम्बुनिधि करोति सुतरं चेतःकृपाद्रीन्तरम् ॥ १०॥