Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1910 Book 06
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference
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જેન કેન્ફરન્સ હેરલ્ડ.
एक पुरुषने अपने संबंधी को चिट्ठी लिखी उसमें उसने स्वरोंपर ध्यान नहीं देकर केवल व्यंजन इस प्रकार लिखे, " क क ज अजमर गय अमन र इ ल न छ त म प ण र इ ल ज” असलमें उसके लिखनेका तो यह मतलब था कि, काकाजी अजमेर गये हैं. हमने ढूई ली है, तुमने भी टूई लेना, परन्तु उस अक्कलके अंधोने समझ लियाके " काकाजी आज मर गये हमने रोय लियाहै तुम पण रोयलेना” बस क्या पूछीये पत्र पढतेही रोना पीटना शुरू होगया, और बादमें सत्य बात मआलुम होनेपर पछताने लगे. वाह, वाह, क्या इसी बात पर जैन लोग अपने बडपनका दावा करतेहैं. ३.
जो भाई केवळ व्यवहारिक अभ्यास करके धार्मिक की तर्फ बिलकुल तवजे नहीं देते हैं; वर अखार धर्मभृष्ट हो जाते हैं. वास्ते हरगांवमें पाठशाला मुकरर करके दोनों प्रकारकी शिक्षा दी जाना चाहिये.
विद्या यह एक ऐसी चीज है जो कुरूपी को भी खुबसूस्त बना देती है. और इसके धरण करनेवालों को कुछभी जाय नहीं रहता; देख किसी कविने कहा है:
श्लोक विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्न गुप्तं धनं । विद्या भोगकरी यशःसुखकरी विद्या गुरूणा गुरुः ॥ विद्या बंधुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम् ।
विद्या राजसु पूजिता न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ॥ ४॥ . भवार्थ-विद्या यह एक मनुष्यका अधिक रूप गुप्त धन भेग तथा यश की करनेवाली और गुरूओंकीभी गुरू है. पुनः यह विद्या विदेशमे बन्धुके सदृश तथा परम दैव है, वह जैसी राजाओंसे पूजी जाती है. सिवाय उसकं धन नहीं है, वास्ते जो विद्यासे हीन है वह पशुओंके समान है. तो इससे मभालुम हुवा कि विद्या सर्वमें श्रेष्ट है. । आजकल जिधर देखा जावे ऊधर यही पोकार उठता है; कि निराश्चितों को आश्रय दो २ परंतु यदि हमारे अदंर पढनेकी पौवत होती तो आज यह मौका पेश नहीं आता.. • यह तो प्रत्यक्ष देखनेमें आरहा है कि, पढे लिखे लोग बडे २ उहदोंपर मुकरर होकर सुखचेन उडा रहें हैं और अपढ मनुष्य आने या दो आने रोजकी मजदूरी पर कैसे कठिन काम करते हैं. तिसमें भी उन्हे धूप या ठंड बचाना मुशकिल हो जातीहै. वास्ते सर्व भ्राता
ओं से प्रार्थना है कि, अपने २ बच्चोंको पढावें. जो माता पिता अपने बच्चों को नहीं पढाते हैं वह किस उपमा को प्राप्त होते हैं. सो सुनियेगा.