________________
13
अवलंबन लेवे, अन्यथा वह व्यक्ति भ्रष्ट होगा या उसमें शिथिलता आ जावेगी ।
जैन सम्प्रदाय में आज भी जो नग्नता को मुख्यता दी गयी है। वह उक्त प्रकार के स्वावलम्बन की दृष्टि से ही दी गयी है। इस अर्थ को अन्य सम्प्रदायों ने समझा नहीं। इसलिए वे साधुपद को स्वीकार करके भी नग्नता को छोड़ बैठे ।
आगम में साधु के 28 मूलगुण होने चाहिए, यह उल्लेख देखने को मिलता है। उसमें यह भाव निहित है कि तत्वतः पर का हम न कुछ बिगाड़ कर सकते हैं और न सुधार कर सकते हैं। जो कुछ भी पर का हित-अहित होता है, वह उनकी योग्यता के अनुसार ही होता है। परमार्थतः कर्म भी उसमें कारण नहीं है, निमित्त मात्र है। यही कारण है कि जो मुनि होता है उसको नियम से इन 28 मूलगुणों को अंगीकार करना कर्तव्य हो जाता है। अट्ठाइस मूलगुणों में शेष सात गुण जो बतलाये हैं, उनके द्वारा व्यावहारिक स्वावलम्बन की शिक्षा दी गयी है।
यह कहना कि सच्चे-झूठे मुनि का विचार न करके जो वर्तमान में मुनि बने हैं, श्रावक उन्हें उनका संगोपंग (भरण-पोषण) करे । किन्तु विचार कर देखा जाए तो, जो मुनिपद को अंगीकार करके उससे भ्रष्ट हो जाते हैं, उनका भी यदि श्रावक संगोपंग करे तो मुनिधर्म पूर्वक मोक्षमार्ग के ही समाप्त होने का प्रसंग आ जावेगा । इसलिए गृहस्थ का कर्तव्य है कि मूलाचार के अनुसार उनकी आचार-विचार की क्रिया में अन्तर देखे, तो सबसे पहले उसे समझावे, यदि समझाने पर भी वह हठ न छोड़े, तो मोक्षमार्ग की परम्परा में विकृति आ जाना सम्भव है । इसलिए गृहस्थ की यह जिम्मेवारी है कि वह मोक्षमार्ग की परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखे। जो भाई उसका उल्लंघन कर मोक्षमार्ग की परम्परा में दोष का प्रवेश करते हुए देखकर अपने कर्तव्य को भूल जाते हैं । वे वस्तुतः गृहस्थ धर्म के अधिकारी नहीं बन पाते हैं।