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अप्रत्याख्यान का द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का उपदेश आगमों में पाया जाता है। वह द्रव्य और भाव के निमित्त नैमित्तिक भाव को सिद्ध करता हुआ आत्मा परमार्थ से रागादि भावों का अकर्ता है, इसका ज्ञापन करता है। इससे यह सिद्ध हुआ है कि परद्रव्य निमित्त है, और आत्मा के
अज्ञान और रागादिक भाव नैमित्तिक हैं। इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर आचार्य समन्तभद्र देव ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को मोक्ष के कारणों में परिगणित कर मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को संसार के कारणों में परिगणित किया है 15
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मिथ्यादर्शन का लक्षण है अतत्व श्रद्धान और परमार्थ रूप देव गुरू शास्त्र में अश्रद्धा । अतः तत् पूर्वक मिथ्याज्ञान होता है और इन दोनों के साथ होने वाले चारित्र को मिथ्याचारित्र कहते हैं । यह मोक्षमार्ग की सामान्य व्यवस्था है। फिर भी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के होने पर भी अविरत सम्यग्दृष्टि के चारित्र को अचारित्र ही कहा जाएगा। अचारित्र मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि तत्वतः देखा जाए, तो अविरत सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्वाचरण चारित्र का सद्भाव आगम में स्वीकार किया गया है, और सम्यक्त्वाचरण चारित्र के साथ स्वरूप रमणता रूप स्वरूपाचरण चारित्र के स्वीकार करने में हमें कोई आपत्ति दिखायी नहीं देती, क्योंकि स्वभावभूत आत्मा को उपयोग में स्वीकार किये बिना सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हो सकती । चतुर्थ गुणस्थान में अविरत सम्यग्दृष्टि के सराग सम्यक्त्व ही होता है, ऐसा नहीं है। वह तो औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के सद्भाव को सूचित करता है । अतः उक्त प्रकार से सम्यग्दर्शन का सराग सम्यग्दर्शन ज्ञापक कारण ही है । क्योंकि जैसे व्यवहार रत्नत्रय परमार्थ स्वरूप रत्नत्रय का ज्ञापक निमित्त होने के कारण रत्नत्रय पद्वी को प्राप्त हो जाता है, वैसे ही सराग सम्यग्दर्शन स्वभावभूत सम्यग्दर्शन के साथ रहने के कारण व्यवहार से सम्यग्दर्शन पद्वी को प्राप्त हो जाता है ।
यहाँ मुख्य रूप से विचारणीय है कि बाह्य संयोग का अभाव उसके त्याग में निमित्त है तो वर्तमान में मुनि अवस्था में उसके साथ परिग्रह क्यों देखा जाता है ? और हाँ ! यदि यह कहो कि कालदोष इसका कारण हैं ?
5. सद्दृष्ठि ज्ञान वृत्तानि धर्म धर्मेश्वराविदुः ।
यदीय प्रत्यनीकानि भवन्ति भव पद्धतिः ।। र. श्री. अ. 1, श्लोक 3 । ।