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इस दृष्टि से विचार करने पर बाह्य क्रियाओं की सार्थकता हमारे अभिप्राय में आ जाती है। जो बाह्य क्रियाओं की उपेक्षा करके राग-द्वेष का अभावपूर्वक आत्मस्थ होना चाहता है, उसके लिए बाह्य क्रियाओं का विचार होना ही चाहिए। बाह्य क्रियाओं में उठना-बैठना, खाना-पीना, बोलना-चालना ये सब आ जाते हैं। आजकल यद्यपि यह सब देखा जाता है कि द्रव्यानुयोग के अनुसार सुन्दर से सुन्दर चर्चाएं की जाती हैं, परन्तु यदि खान-पान, उठने-बैठने में सुधार न होवे तो वे ज्ञानी नहीं बन पाते हैं। नियम यह है कि सर्वप्रथम शय्या छोड़ने के बाद पंच नमस्कार मंत्र का पाठ करें, अनन्तर स्नानादि करके जिनमन्दिर जाते समय ईयर्यापथ की विधि पूर्वक तीन बार निःसहि शब्द का उच्चारण करते हुए जिनमन्दिर में प्रवेश कर जिनदेव के समक्ष जो जिनपूजा की विधि है उसे सम्पन्न कर, स्वाध्याय आदि करें। अनन्तर अन्याय, अभक्ष्य का त्याग कर नित्य कर्म को सम्पन्न करें। यह दैनन्दिन की क्रिया का सामान्य विचार है। क्योंकि ऐसा न होने पर सच्चा जैन कहलाने का अधिकारी नहीं हो पाता है।
आचार्य कुन्दकुन्द देव ने जो सम्यक्त्वाचरण चारित्र का निर्देश किया है, उसमें सम्यग्दर्शन पूर्वक यह सब विधि सम्मिलित हो जाती है। समन्तभद्र ने अपने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में पंचपरमेष्ठी, जिनालय, जिनदेव, जिनशास्त्र, व जिनधर्म ये नव प्रकार के देवता बतलाये हैं। ये ही जिनशासन के देवता हैं, अन्य नहीं है। इसीलिए चरणानुयोग आगम में सम्यग्दर्शन के लक्षण का निर्देश करते समय छह अनायतन, और तीन मूढ़ता के निषेधपूर्वक आठ मद का त्याग करते हुए सम्यग्दर्शन के शंकादि आठ दोषों को छोड़कर आठ अंग के धारण करने का निर्देश किया गया है।
यह श्रावकाचार की सबसे पहली क्रिया है, इसके बाद यदि श्रावक में सामर्थ्य है, तो वह मुनि पद के योग्य भूमिका बनाने के लिए क्रमश: 11 प्रतिमाओं को स्वीकार करता है। सबसे अन्तिम प्रतिमा में जो ऐलक होता है, उसके केवल लंगोटी- मात्र परिग्रह रह जाता है, अन्य सब परिग्रहों का उसके त्याग हो जाता है।
2. श्रृद्धानं परमार्थानामप्तागम तपोभृताम्।
त्रिमूढापोढमष्टांग सम्यग्दर्शनमस्मयम् ।। र.श्रा. 4।।