________________
( २० )
स्थविरों की गणना में भी श्रुतस्थविर' को स्थान मिला है वह भी 'श्रुत' शब्द की प्राचीनता सिद्ध कर रहा है। आचार्य उमास्वाति ने श्रुत के पर्यायों का संग्रह कर दिया है वह इस प्रकार है:- श्रुत, आप्तवचन, आगम, उपदेश, ऐतिह्य, आम्नाय, प्रवचन और जिनवचन । इनमें से आज 'आगम'3 शब्द ही विशेषतः प्रचलित है।
समवायांग आदि आगमों से मालूम होता है कि सर्वप्रथम भगवान् महावीर ने जो उपदेश दिया था उसकी संकलना 'द्वादशांगों' में हुई और वह 'गणिपिटक' इसलिए कहलाया कि गणि के लिए वही श्रुतज्ञान का भण्डार था।
समय के प्रवाह में आगमों की संख्या बढ़ती ही गई जो ८५ तक पहुँच गई है। किन्तु सामान्य तौर पर श्वेताम्बरों में मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में वह ४५ और स्थानकवासी तथा तेरापन्थ में ३२ तक सीमित है। दिगम्बरों में एक समय ऐसा था जब वह संख्या १२ अंग और १४ अंगबाह्य = २६ में सीमित थी। किन्तु अंगज्ञान की परम्परा वीरनिर्वाण के ६८२ वर्ष तक ही रही और उसके बाद वह आंशिक रूप से चलती रही-ऐसी दिगम्बर-परम्परा है।
आगम की क्रमशः जो संख्यावृद्धि हुई उसका कारण यह है कि गणधरों के अलावा अन्य प्रत्येकबुद्ध महापुरुषों ने जो उपदेश दिया था उसे भी प्रत्येकबुद्ध के केवली होने से आगम में सन्निविष्ट करने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती थी। इसी प्रकार गणिपिटक के ही आधार पर मन्द बुद्धि शिष्यों के हितार्थ श्रुतकेवली आचार्यों ने जो ग्रन्थ बनाये थे उनका समावेश भी, आगम के साथ उनका अविरोध होने से और आगमार्थ की ही पुष्टि करनेवाले होने से, आगमों में कर लिया गया। अन्त में सम्पूर्णदशपूर्व के ज्ञाता द्वारा ग्रथित ग्रन्थ भी आगम में समाविष्ट इसलिए किये गये कि वे भी आगम को पुष्ट करने वाले थे और उनका आगम से
१. स्थानांग, सू० १५९. २. तत्त्वार्थभाष्य, १. २०.
३. सर्वप्रथम अनुयोगद्वार सूत्र में लोकोत्तर आगम में द्वादशांग गणिपिटक का समावेश किया है और आगम के कई प्रकार के भेद किये है-सू० १४४, पृ० २१८.
४. “दुवालसंगे गणिपिडगे" -समवायांग, मू० १ और १३६; नन्दी, सू० ४१ आदि ।
५. जयघवला, पृ० २५; धवला, भा० १, पृ० ९६; गोम्मटसार-जीवकाण्ड, गा० ३६७, ३६८. विशेष के लिए देखिए-आगमयुग का जैनदर्शन, पृ० २२-२७.
६. जै० सा० इ० पूर्वपीठिका, पृ० ५२८, ५३४, ५३८ ( इनमें सकलश्रुतज्ञान का विच्छेद उल्लिखित है। यह संगत नहीं जंचता)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org