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ज्ञाताधर्मकथा
२५१ कला, अट्ठारसविहिप्पगारदेसीभासा, उग्र, भोग, राजन्य, मल्लिकी, लेच्छकीलिच्छवी, कुत्तियावण, विपुलपर्वत इत्यादि । इन शब्दों से तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों का बोध होता है । कारागार:
प्रथम श्रुतस्कन्ध के द्वितीय अध्ययन में कारागार का विस्तृत वर्णन है । इसमें कारागार की भयंकर यातनाओं का भी दिग्दर्शन कराया गया है। इस कथा में यह भी बताया गया है कि आज की तरह उस समय के माँ-बाप भी बालकों को गहने पहना कर बाहर भेजते थे जिससे उनकी हत्या तक हो जाती थी। राज्य के छोटे से अपराध में फंसने पर भी सेठ को कारावास भोगना पड़ता था, यह इस कथा में स्पष्ट बताया गया है। इसमें यह भी बताया गया है कि पुत्र-प्राप्ति के लिए माताएँ किस प्रकार विविध देवों की विविध मनौतियां मनाती थीं। इस कथा से यह मालूम पड़ता है कि कारागार में भोजन घर से ले जाने दिया जाता था। भोजन ले जाने के साधन का नाम भोजनपिटक है। वृत्तिकार के कथनानुसार यह बांस का बना होता है। इस भोजनपिटक को मुहर-छाप लगाकर व चिह्नित करके कारागार में भेजा जाता था। भोजनपिटक के साथ पानी का घड़ा भी भेजा जाता था। कारागार से छूटने के बाद सेठ आलंकारिक सभा में जाकर हजामत बनवा कर सज्जित होता है । मालूम होता है उस समय कारागार में हजामत बनवाने का प्रबन्ध नहीं था। हजामत की दुकान के लिए प्रस्तुत कथा में 'आलंकारिक सभा' शब्द का प्रयोग हुआ है। यह कथा रूपक अथवा दृष्टान्त के रूप में है। इसमें सेठ अपने पुत्र के घातक चोर के साथ बांधा जाता है । सेठ आत्मारूप है तथा अन्य चोर देहरूप है । शत्रुरूप चोर की सहायता प्राप्त करने के लिए सेठ उसे खाने-पीने को देता था। इसी प्रकार शरीर को सहायक समझ कर उसका पोषण करना प्रस्तुत कथानक का सार है। एतद्विषयक विशेष समीक्षा मैंने अपनी पुस्तक 'भगवान महावीरनी धर्मकथाओं' में की है ।
तृतीय अंड-अंडा नामक तथा चतुर्थ कूर्म नामक अध्ययन के विशेष शब्द में है-मयूरपोषक, मयंगतोर-मृतगंगा इत्यादि । ये दोनों अध्ययन मुमुक्षुओं के लिए बोधदायक है। शैलक मुनि :
पांचवें अध्ययन में शैलक नामक एक मुनि की कथा आती है। शैलक बीमार हो जाता है। उसे स्वस्थ करने के लिए वैद्य औषधि के रूप में मद्य पीने की सिफारिश करते हैं। वह मुनि मद्य तथा अन्य प्रकार के स्वास्थ्यप्रद भोजन का उपयोग कर स्वस्थ हो जाता है । स्वस्थ होने के बाद वह रस में आसक्त
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