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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आइण्ण-आज -आजन्य-उत्तम घोड़ों-की कथा जिसमें आती है उस सत्रहवें अध्ययन में मच्छंडिका, पुष्पोत्तर और पद्मोत्तर नाम की तीन प्रकार की शक्कर को चर्चा की गई है तथा उसके प्रलोभन में फंसने वालों की कैसी दुर्दशा होती है, यही बताने का इस कथा का आशय है । सुंसुमा :
सुंसुमा नामक अठारहवें अध्ययन में असाधारण परिस्थिति उपस्थित होने पर जिस प्रकार माता-पिता अपनी संतान के मृत शरीर का मांस खाकर जीवन-रक्षा कर सकते हैं इसी प्रकार षट काय के रक्षक व जीवमात्र के माता-पिता के समान जैन श्रमण-श्रमणियाँ असाधारण परिस्थितियों में ही आहार का उपभोग करते हैं। उनके लिए आहार अपनी संतान के मृत शरीर के मांस के समान है। उन्हें रसास्वादन की दृष्टि से नहीं अपितु संयम-साधनरूप शरीर की रक्षा के निमित्त ही असह्य क्षुधा-वेदना होने पर ही आहार ग्रहण करना चाहिए, ऐसा उपदेश है । बौद्ध ग्रन्थ संयुत्तनिकाय में इसी प्रकार की कथा इसी आशय से भगवान् बुद्ध ने कही है। विशुद्धिमार्ग तथा शिक्षासमुच्चय में भी इसी कथा के अनुसार आहार का उद्देश्य बताया गया है । स्मृतिचंद्रिका में भी बताया गया है कि मनुस्मृति में वर्णित त्यागियों से सम्बन्धित आहार-विधान इसी प्रकार का है।
इस प्रकार प्रस्तुत कथा-अन्य की मुख्य तथा अवान्तर कथाओं में भी अनेक घटनाओं, विविध शब्दों एवं विभिन्न वर्णनों से प्राचीनकालीन अनेक बातों का पता लगता है । इन कथाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने पर संस्कृति व इतिहास सम्बन्धी अनेक तथ्यों का पता लग सकता है।
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