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जैन साहित्य का बृहद इतिहास
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समे वेदार्लिज्जे एत्तो उवसग्ग इत्थिपरिणामे । तर वीरथु दी कुसोल परिभाषए वीरिए ' ॥ १ ॥ धम्मो य अग्ग" मग्र्ग " समोवरसर १२ णंतिकाल गंथहिदे | आदा ४ तदित्थगाथा" पुंडरीको ६ किरियाठाणे ॥ २ ॥ आहारय" परिमाणे पन्चक्खाण" अणगार गुणकित्ति । सुद२१ अत्थ े णालदे२३ सुद्द यउज्झाणाणि
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तेवीसं ॥ ३ ॥
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इन गाथाओं से बिलकुल मिलता हुआ पाठ उक्त आवश्यकसूत्र ( पृ० ६५१ तथा ६५८) में इस प्रकार है :
समए' या 'लीयं उवसग्ग' परिण्ण थीपरिण्णा य ।
निरयविभत्ती वीरत्थ ' ओ य कुसीलाणं परिहासा ॥ १ ॥ वीरिय' धम्म ' समाही" मग्ग" समोसरणं" अहतहं* ग्रंथों४ । जमईअं" तह गाहा १६ सोलसमं होइ अज्झयणं ॥ २ ॥ पु'डरीय " किरियट्ठा" णं आहारप" रिण्ण पच्चक्खा २०णाकिरियाय । अणगार" अद्द २२ नालंदर ३ सोलसाई तेवीसं ॥ ३ ॥
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अचेलक परम्परा के ग्रंथ भगवती आराधना अथवा मूलआराधना की अपराजितसूरिकृत विजयोदया नामक वृत्ति में आचारांग, दशवेकालिक, आवश्यक, उत्तराध्ययन एवं सूत्रकृतांग के पाठों का उल्लेख कर यत्र-तत्र कुछ चर्चा की गई है।' इसमें 'निषेधेऽपि उक्तम्' (पृ. ६१२) यों कहकर निशीथसूत्र का भी उल्लेख किया गया है । इतना ही नहीं, भगवती आराधना की अनेक गाथाएँ सचेलक परम्परा के पयन्ना - प्रकीर्णक आदि ग्रंथों में अक्षरशः उपलब्ध होती हैं । इससे स्पष्ट मालम होता है कि प्राचीन समय में अचेलक परम्परा और सचेलक परम्परा के बीच काफी अच्छा सम्पर्क था । उन्हें एक-दूसरे के शास्त्रों का ज्ञान भी था । तत्त्वार्थसूत्र के विजयादिषु द्विचरमाः ' ( ४.२६) की व्याख्या करते हुए राजवार्तिककार भट्टाकलंक ने 'एवं हि व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकेषु उक्तम्' यों कह कर व्याख्याप्रज्ञप्ति अर्थात् भगवतीसूत्र का स्पष्ट उल्लेख किया है एवं उसे प्रमाणरूप से स्वीकार किया है । भट्टाकलंक निर्दिष्ट यह विषय व्याख्याप्रज्ञप्ति के २४ वें शतक के २२ वें उद्देशक के १६ वें एवं १७ वें प्रश्नोत्तर में उपलब्ध है । धवलाकार वोरसेन 'लोगो वादपदिट्टिदो त्ति वियाहपण्णत्तवयणादो' (षट्खण्डागम, ३, पृ. ३५) यों कहकर व्याख्याप्रज्ञप्ति का प्रमाणरूप से उल्लेख करते हैं । यह विषय व्याख्याप्रज्ञप्ति के प्रथम शतक के छठे उद्देशक के २२४ वें प्रश्नोत्तर में उपलब्ध है । इसी प्रकार दशवेकालिक, १. उदाहरण के लिए देखिये -पू. २७७, ३०७, ३५३, ६०९, ६११.
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