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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास सूचना नहीं। इसी प्रकार नंदीसूत्र में भी अध्ययन-संख्या का ही उल्लेख है, नामों का नहीं।
इस अंग का सटिप्पण अनुवाद प्रकाशित हुआ है । टिप्पणियाँ प्रस्तुत लेखक द्वारा ही लिखी गई हैं अतः यहाँ एतद्विषयक विशेष विवेचन अनपेक्षित है। मर्यादा-निर्धारण : _प्रस्तुत सूत्र में आनेवाली कथाओं में सब श्रावक अपने खान-पान, भोगोपभोग एवं व्यवसाय की मर्यादा निर्धारित करते हैं। इन्होंने धन की जो मर्यादा स्वीकार की है वह बहुत ही बड़ी मालूम होती है। खानपान की मर्यादा के अनुरूप ही सम्पत्ति की भी मर्यादा होनी चाहिए। ये श्रावक व्यापार, कृषि, ब्याज का धंधा एवं अन्य प्रकार का व्यवसाय करते रहते हैं। ऐसा करने पर धन बढ़ता ही जाना चाहिए। इस बढ़े हुए धन के उपयोग के विषय में सूत्र में किसी प्रकार का विशेष उल्लेख नहीं है। उदाहरणार्थ गायों की मर्यादा दस हजार अथवा इससे अधिक रखी है। अब उन गायों के नये-नये बछड़े-बछड़ियाँ होने पर उनका क्या होगा ? निर्धारित संख्या में वृद्धि होने पर व्रतभंग होगा अथवा नहीं ? व्रतभंग की स्थिति पैदा होने पर बढ़ी हुई सम्पत्ति का क्या उपयोग होगा?
आनन्द श्रावक के उनकी पत्नी एवं एक पुत्र था । इस प्रकार वे तीन व्यक्ति थे। आनन्द ने सम्पत्ति की जो मर्यादा रखी वह इस प्रकार है : हिरण्य की चार कोटि मुद्राएँ निधान में सुरक्षित, चार कोटि वृद्धि के लिए गिरवी आदि हेतु; एवं चार कोटि व्यापार के लिए; दस-दस हजार गायों के चार व्रज, पांच सौ हलों से जोती जा सके उतनी जमीन; देशान्तरगामी पांच सौ शकट व उतने ही अनाज आदि लाने के लिए, चार यानपात्र-नौका देशान्तरगामी व चार ही नौका घर के उपयोग के लिए। उसने खान-पान की जो मर्यादा रखी वह साधारण है।
वर्तमान में भी श्रावकलोग खान-पान के अमुक नियम रखते हुए पास में अत्यधिक परिग्रह व धनसम्पत्ति रखते हैं। कुछ लोग परिग्रह की मर्यादा करने के बाद धन की वृद्धि होने पर उसे अपने स्वामित्व में न रखते हुए स्त्री-पुत्रादिक के नाम पर चढ़ा देते है। इस प्रकार छोटी-छोटी चीजों का तो त्याग होता रहता है किन्तु महादोषमूलक धनसंचय का काम बन्द नहीं होता । विघ्नकारी देव :
सूत्र में श्रावकों की साधना में विघ्न उत्पन्न करने वाले भूत-पिशाचों का भयंकर वर्णन है। जब ये भूतपिशाच विघ्न पैदा करने वाले हैं तब केवल श्रावक
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