________________
प्रश्नव्याकरण
२७३
ब्रह्मचर्य सम्बन्धी प्रकरण में ब्रह्मचर्य का निरूपण, तत्सम्बन्धी अनुष्ठानों का वर्णन एवं उसकी साधना करने वालों का प्ररूपण किया गया है। साथ ही अनाचरण की दृष्टि से ब्रह्मचर्यविरोधी प्रवृत्तियों का भी उल्लेख किया गया है।
अन्तिम प्रकरण अपरिग्रह से सम्बन्धित है। इसमें अपरिग्रहवत्ति के स्वरूप, तद्विषयक अनुष्ठानों एवं अपरिग्रहव्रतधारियों के स्वरूप का निरूपण है ।
इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में पांच आस्रवों तथा पांच संवरों का निरूपण है। इसमें महाव्रतों की समस्त भावनाओं का भी निरूपण है। भाषा समासयुक्त है जो शीघ्र समझ में नहीं आती। वृत्तिकार ने प्रारंभ में ही लिखा है कि इस ग्रंथ की प्रायः कूट पुस्तकें (प्रतियाँ ) उपलब्ध है। हम अज्ञानी हैं और यह शास्त्र गंभीर है । अतः विचारपूर्वक अर्थ की योजना करनी चाहिए । सबसे अन्त में उन्होंने यह भी लिखा है कि जिनके पास आम्नाय नहीं है उन हमारे जैसे लोगों के लिए इस शास्त्र का अर्थ समझना कठिन है। अतः यहाँ हमने जो अर्थ दिया है वही ठीक है, ऐसी बात नहीं है। वृत्तिकार के इस कथन से मालूम पड़ता है कि आगमों की आम्नाय अर्थात् परम्परागत विचारसरणि खंडित हो चुकी थी-टूट चुकी थी। प्रतियाँ भी प्रायः विश्वसनीय न थीं। अतः विचारको को सोच-समझ कर शास्त्रों का अर्थ करना चाहिए । तत्त्वार्थराजवात्तिक (पृ० ७३-७४ ) में कहा गया है कि आक्षेपविशेष द्वारा हेतुनयाश्रित प्रश्नों के व्याकरण का नाम प्रश्नव्याकरण है। उसमें लौकिक तथा वैदिक अर्थों का निर्णय है। इस विषयनिरूपण में हिंसा, असत्य आदि आस्रवों का तथा अहिंसा, सत्य आदि संवरों का समावेश होना संभावित प्रतीत होता है। तात्पर्य यह है कि अंगुष्ठप्रश्न, दर्पणप्रश्न आदि का विचार प्रश्नव्याकरण में है, ऐसी बात राजवातिककार ने नहीं लिखी है परन्तु धवलाटीका में नष्टप्रश्न, मुष्टिप्रश्न इत्यादि का विचार प्रश्नव्याकरण में है, ऐसा बताया गया है।
१७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org