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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास होकर मद्यादि का त्याग नहों करता। यह देख कर पंथक नामक उसका शिष्य विनयपूर्वक उसे मार्ग पर लाता है एवं शलक मुनि पुनः सदाचार सम्पन्न एवं तपस्वी बन जाता है। जिस ढंग से पंथक ने अपने गुरु को जाग्रत किया उस प्रकार के विनय की वर्तमान में भी कभी-कभी आवश्यकता होती है ।
इस अध्ययन में षष्टितंत्र, रेवतक पर्वत वगैरह विशिष्ट शब्द आए है। शुक परिव्राजक :
इसी अध्ययन में एक शुक परिव्राजक की कथा आती है। वह अपने धर्म को शौचप्रधान मानता है । वह परिव्राजक सौगंधिका नगरी का निवासी है। इस नगरी में उसका मठ है। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद का ज्ञाता है, षष्टितन्त्र में कुशल है, सांख्यमत में निपुण है, पांच यम एवं पाँच नियम युक्त शौचमूलक दस प्रकार के धर्म का निरूपण करने वाला है, दानधर्म, शौचधर्म एवं तीर्थाभिषेक को समझाने वाला है, धातुरक्त वस्त्र पहनता है। उसके उपकरण ये हैं : त्रिदंड, कुंडिका, छत्र, करोटिका, कमंडल, रुद्राक्षमाला, मृत्तिकाभाजन, त्रिकाष्ठिका, अंकुश, पवित्रक-ताँबे की अंगूठी, केसरी-प्रमार्जन के लिए वस्त्र का टुकड़ा। वह सांख्य के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है। सुदर्शन नामक कोई गृहस्थ उसका अनुयायी था जो जैन तीर्थंकर के परिचय में आकर जैन हो गया था। उसे पुनः अपने मत में लाने के लिए शुक उसके पास जाता है। वृत्तिकार ने इस शुक को व्यास का पुत्र कहा है।
शुक कहता है कि शौच दो प्रकार का है : द्रव्यशौच और भावशौच । पानी व मिट्टी से होने वाला शौच द्रव्यशौच है तथा दर्भ व मंत्र द्वारा होने वाला शीच भावशीच है। जो अपवित्र होता है वह शुद्ध मिट्टी व जल से पवित्र हो जाता है। जीव जलाभिषेक करने से स्वर्ग में जाता है । इस प्रकार प्रस्तुत कथा में वैदिक कर्मकाण्ड का थोड़ा-सा परिचय मिलता है ।
जब शुक को मालूम पड़ा कि सुदर्शन किसी अन्य मत का अनुयायी हो गया है तो उसने सुदर्शन से पूछा कि हम तुम्हारे धर्माचार्य के पास चलें और उससे कुछ प्रश्न पूछे। यदि वह उनका ठीक उत्तर देगा तो मैं उसका शिष्य हो जाऊँगा। सुदर्शन के धर्माचार्य ने शुक द्वारा पूछे गये प्रश्नों का सही उत्तर दे दिया। शुक अपनी शर्त के अनुसार जैनाचार्य का शिष्य हो गया। उसने अपने पूर्व उपकरणों का त्याग कर चोटी उखाड़ ली। वह पुण्डरीक पर्वत पर जाकर अनशन करके सिद्ध हुआ। मूल सूत्र में पुंडरीक पर्वत की विशिष्ट स्थिति के विषय में कोई उल्लेख नहीं है । वृत्तिकार ने इसे शत्रुजय पर्वत कहा है। प्रस्तुत प्रकरण में जैन साधु के पंचमहाव्रत आदि आचार को एवं जैन गृहस्थ के अणुव्रत
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