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जैन श्रुत
सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी प्रणीत द्वादशांग गणिपिटक चतुर्दशपूर्वधर यावत् दशपूर्वधर के लिए सम्यक् श्रुतरूप है । इसके नीचे के किसी भी अधिकारी के लिए वह सम्यकश्रुत हो भी सकता है और नहीं भी । अधिकारी के सम्यग्दृष्टिसम्पन्न होने पर उसके लिए वह सम्यकश्रुत होता है व अधिकारों के मिथ्यादृष्टि होने पर उसके लिए वह मिथ्याश्रुत होता है ।
दिसूत्रकार के कथनानुसार अज्ञानियों अर्थात् मिथ्यादृष्टियों द्वारा प्रणीत वेद, महाभारत, रामायण, कपिलवचन, बुद्धवचन आदि शास्त्र मिथ्यादृष्टि के लिए मिथ्या श्रुतरूप व सम्यकदृष्टि के लिए सम्यक् श्रुतरूप हैं । इन शास्त्रों में भी कई प्रसंग ऐसे आते हैं जिन्हें सोचने-समझने से कभी-कभी मिथ्यादृष्टि भी अपना दुराग्रह छोड़ कर सम्यग्दृष्टि हो सकता है ।
नन्दिसूत्रकार के सम्यक् तसम्बन्धी उपयुक्त कथन में पढ़ने वाले, सुनने वाले अथवा समझने वाले को विवेकदृष्टि पर विशेष भार दिया गया है । तात्पर्य यह है कि सम्यकदृष्टिसम्पन्न होता है उसके लिए प्रत्येक शास्त्र सम्यक् होता है । इससे विपरीत दृष्टि वाले के लिए प्रत्येक शास्त्र मिथ्या होता है । दूध साँप भी पीता है व सज्जन भी, किन्तु अपने-अपने स्वभाव के अनुसार उसका परिणाम विभिन्न होता है । साँप के शरीर में वह दूध विष बनता है जब कि सज्जन के शरीर में वही दूध अमृत बनता है । यही बात शास्त्रों के लिए भी है ।
सम्यग्दृष्टि का अर्थ जैन एवं मिथ्यादृष्टि का अर्थ अजैन नहीं है । जिसके चित्त में राम, संवेग, निर्वेद, करुणा व आस्तिक्य - इन पाँच वृत्तियों का प्रादुर्भाव हुआ हो व आचरण भी तदनुसार हो वह सम्यग्दृष्टि है । जिसके चित्त में इनमें से एक भी वृत्ति का प्रादुर्भाव न हुआ हो वह मिथ्यादृष्टि है । यह बात पारमार्थिक दृष्टि से जैनप्रवचन सम्मत है ।
तदेवंभूतं सम्यक्त्वमेव समत्वमेव वा समभिजानीयात् - सम्यग् आभिमुख्येन जानीयात् परिच्छिन्द्यात् । तथाहि — अचेलः अपि एकचेलआदिकं नावमन्यते । यतः उक्तम् —
जो वि दुवत्थ-तिवत्थो एगेण अचेलगो व संथरइ । ण हु ते ही ंति परं सव्वेऽवि य ते जिणाणाए || जे खलु विसरिसकप्पा संघयणधिइयादिकारणं पप्प | saमन्नइ ण य होणं अप्पाणं मन्नइ तेहि || सव्वेऽवि जिणाणाए जहाविहिं कम्मखवणअट्टाए । विहरति उज्जया खलु सम्म अभिजाणइ एवं ।। "
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- आचारांग - वृत्ति, पृ० २२२,
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