________________
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
चाहिए कि आचारांगादि का परिचय संक्षेप - विस्तार से अनेक प्रकार से दिया जा सकता है । यहाँ यह स्मरण रखना आवश्यक है कि विषय-निर्देश भले ही भिन्नभिन्न शब्दों द्वारा अथवा भिन्न-भिन्न शैलियों द्वारा विविध ढंग से किया गया हो किन्तु उसमें कोई मौलिक भेद नहीं है ।
अचेलक व सचेलक दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों में जहाँ अंगों का परिचय आता है वहाँ उनके विषय तथा पद-परिमाण या निर्देश करने वाले उल्लेख उपलब्ध होते हैं | अंगों का ग्रन्थाग्र अर्थात् श्लोकपरिमाण कितना है, यह अब देखें । बृहपिनिका नामक एक प्राचीन जैनग्रन्थसूची उपलब्ध है । यह आज से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व लिखी गई मालूम होती है । इसमें विविध विषय वाले अनेक ग्रन्थों की श्लोकसंख्या बताई गई है, साथ ही लेखनसमय व ग्रन्थलेखक का भी निर्देश किया गया है । ग्रन्थ सवृत्तिक है अथवा नहीं, जैन है अथवा अजैन, ग्रन्थ पर अन्य कितनी वृत्तियाँ हैं, आदि बातें भी इसमें मिलती | अंगविषयक जो कुछ जानकारी इसमें दी गई है उसका कुछ उपयोगी सारांश नीचे दिया जाता है' :
९०
आचारांग - श्लोकसंख्या २५२५, सुत्रकृतांग - श्लोकसंख्या २१००, स्थानांग - श्लोकसंख्या ३६००, समवायांग — श्लोकसंख्या १६६७, भगवती ( व्याख्याप्रज्ञप्ति ) - श्लोकसंख्या १५७५२ ( इकतालीस शतकयुक्त ), ज्ञातधर्मकथा — श्लोकसंख्या ५४००, उपासकदशा — श्लोकसंख्या ८१२, अंतकृद्दशा - श्लोकसंख्या ८९९, अनुत्तरौपपातिकदशा - श्लोकसंख्या १९२, प्रश्नव्याकरण - श्लोकसंख्या १२५६, विपाकसूत्र - श्लोकसंख्या १२१६; समस्त अंगों की श्लोकसंख्या ३५३३९ । नाम-निर्देश :
तत्वार्थ सूत्र के भाष्य में केवल अंगों के नामों का उल्लेख है । इसमें पांचवें अंग का नाम 'भगवती' न देते हुए 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' दिया गया है । बारहवें अंग का भी नामोल्लेख किया गया है ।
अचेलक परम्पराभिमत पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थवृत्ति में अंगों के जो नाम दिये हैं उनमें थोड़ा अन्तर है । इसमें ज्ञातधर्मकथा के बजाय ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा के बजाय उपासकाध्ययन, अंतकृद्दशा के बजाय अंतकृद्दशम् एवं अनुत्तरौपपातिकदशा के बजाय अनुत्तरोपपादिकदशम् नाम है । दृष्टिवाद के भेदरूप पाँच नाम बताये हैं : परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वंगत एवं चूलिका । इनमें से पूर्वगत के भेदरूप चौदह नाम इस प्रकार हैं : १. उत्पादपूर्व, २. अग्रायणीय, ३. वीर्यानुप्रवाद, ४. अस्तिनास्तिप्रवाद, ५. ज्ञानप्रवाद, ६. सत्यप्रवाद,
१. जैन साहित्य संशोधक, प्रथम भाग, पृ० १०५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org