________________
सूत्रकृतांग
१८५
इन पाठभेदों के अतिरिक्त चूर्णिकार ने कई जगह अन्य पाठान्तर भी दिये हैं एवं नागार्जुनीय वाचना के पाठभेदों का भी उल्लेख किया है।
प्रथम उद्देशक की अन्तिम गाथा के 'वेतालियमग्गमागतो' इस प्रथम चरण में अध्ययन के वेतालिय-वैतालीय नाम का भी निर्देश है। यहाँ 'वेतालिय' शब्द वैतालीय छन्द का निर्देशक है। इसका दूसरा अर्थ वैदारिक अर्थात् रागद्वेष का विदारण करने वाले भगवान् महावीर के रूप में भी किया गया है। ये दोनों अर्थ चूणि में हैं।
प्रथम उद्देशक में २२, द्वितीय उद्देशक में ३२ और तृतीय उद्देशक में २२ गाथाए हैं। इस प्रकार वैतालीय अध्ययन में कुल मिलाकर ७६ गाथाएं हैं। इनमें हिंसा न करने के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है एवं महाव्रतों व अणुव्रतों का निरूपण करते हुए उनके अनुसरण पर भार दिया गया है। साधक श्रमण हो या गृहस्थ, उसे साधना में आने वाले प्रत्येक विघ्न का सामना करना चाहिए एवं वीतरागता की भूमिका पर पहुँचना चाहिए । इन सब उपदेशात्मक गाथाओं में उपमाएँ दे-देकर भाव को पूरी तरह स्पष्ट किया गया है। द्वितीय उद्देशक की अठारहवीं गाथा का आद्य चरण है 'उसिणोदगतत्तभोइणो' अर्थात् गरम पानी को बिना ठंडा किये ही पीने वाला। यह मुनि का विशेषण है। इस प्रकार के मुनि को राजा आदि के संसर्ग से दूर रहना चाहिए । दशवैकालिक सूत्र के तृतीय अध्ययन की छठी गाथा के उत्तरार्ध का प्रथम चरण 'तत्ताऽनिव्वुडभोइत्त' भी गरम-गरम पानी पीने की परम्परा का समर्थक है। तृतीय उद्देशक की तीसरी गाथा में महाव्रतों की महिमा बताते हुए कहा गया है कि जैसे वणिकों द्वारा लाये हुए उत्तम रत्नों को राजा-महाराजा धारण करते हैं उसी प्रकार ज्ञानियों द्वारा उपदिष्ट रात्रिभोजनविरमणयुक्त रत्नसदृश महाव्रतों को उत्तम पुरुष ही धारण कर सकते है। इस गाथा की व्याख्या में चूर्णिकार ने दो मतों का उल्लेख किया है : पूर्वदिशा में रहने वाले आचार्यों के मत का व पश्चिम दिशा में रहने वाले आचार्यों के मत का । संभव है, चूर्णिकार का तात्पर्य पूर्वदिशा अर्थात् मथुरा अथवा पाटलिपुत्र के सम्बन्ध से स्कन्दिलाचार्य आदि से एवं पश्चिमदिशा अर्थात् वलभी के सम्बन्ध से नागार्जुन अथवा देवर्षिगणि आदि से हो। रात्रिभोजनविरमण का पृथक उल्लेख एतद्विषयक शैथिल्य को दूर करने अथवा इसे व्रत के समकक्ष बनाने की दृष्टि से किया गया प्रतीत होता है। इसी सूत्र के वीरस्तुति नामक छठे अध्ययन में भी रात्रिभोजन का पृथक् निषेध किया गया है। प्रस्तुत उद्देशक को अन्तिम गाथा में भगवान् महावीर के लिए 'नायपुत्त' का प्रयोग हुआ है। साथ ही इन विशेषणों का भी उपयोग किया गया है : अणुत्तरणाणी, अणुत्तरदंसी, अणुत्तरनाणदंसणधरे, अरहा, भगवं और वेसालिए अर्थात् श्रेष्ठतमज्ञानी,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org