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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
करने वाले हैं वे कम से कम भवनवासी देव होते हैं एवं अधिक से अधिक अच्युत नामक स्वर्ग में जाते हैं । स्वलिंगी अर्थात् केवल जैन वेष धारण करने वाले सम्यग्दर्शनादि से भ्रष्ट साधु कम से कम भवनवासी देवरूप से उत्पन्न होते है व अधिक से अधिक ग्रैवेयक विमान में देव बनते हैं । यह सब देवगति प्राप्त होने की अवस्था में ही समझना चाहिए, अनिवार्य रूप में अर्थात् सामान्य नियम के तौर पर नहीं ।
उपर्युक्त उल्लेख में महावीर के समकालीन आजीविकों, वैदिक परम्परा के तापसों एवं परिव्राजकों तथा जैन श्रमण-श्रमणियों एवं श्रावक-श्राविकाओं का निर्देश है । इसमें केवल एक बौद्ध परम्परा के भिक्षुओं का कोई नामनिर्देश नहीं है । ऐसा क्यों ? यह एक विचारणीय प्रश्न है । यह भी विचारणीय है कि जो केवल जैन वेषधारी हैं व बाह्यतया जैन अनुष्ठान करने वाले हैं किन्तु वस्तुतः सम्यग्दर्शन र हित हैं वे ऊँचे से ऊँचे स्वर्ग तक कैसे पहुँच सकते हैं जबकि उसी प्रकार के अन्य वेषधारी मिथ्यादृष्टि वहाँ तक नहीं पहुँच सकते । तात्पर्य यह जान पड़ता है कि जैन बाह्य आचार की कठिनता और उग्रता अन्य श्रमणों और परिव्राजकों की अपेक्षा अधिक संयम प्रधान थी जिसमें हिंसा आदि पापाचार की बाह्यरीति से संभावना कम थी । अतएव दर्शनविशुद्धि न होने पर भी अन्य मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा जैनश्रमणों को उच्च स्थान दिया गया है ।
कांक्षामोहनीय :
निर्ग्रन्थ श्रमण कांक्षामोहनीय कर्म का किस प्रकार वेदन करते हैं-- अनुभव करते हैं । इसका उत्तर देते हुए सूत्रकार ने आगे बताया है कि ज्ञानान्तर, दर्शनान्तर, चारित्रान्तर, लिंगान्तर, प्रवचनान्तर, प्रावचनिकान्तर, कल्पान्तर, मार्गान्तर, मतान्तर, भंगान्तर, नयान्तर, नियमान्तर एवं प्रमाणान्तररूप कारणों से शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, बुद्धिभेद तथा चित्त की कलुषितता को प्राप्त निर्मन्थ श्रमण कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं । इन कारणों की व्याख्या वृत्तिकार ने इस प्रकार की है
ज्ञानान्तर---मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय व केवल रूप पाँच ज्ञानों- -ज्ञान के प्रकारों के विषय में शंका करना ।
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दर्शनान्तर - चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन आदि दर्शन के अवान्तर भेदों के विषय में श्रद्धा न रखना अथवा सम्यक्त्वरूप दर्शन के औपशमिकादि भेदों के विषय में शंका करना ।
चारित्रान्तर—- सामायिक, छेदोपस्थापनीय आदि रूप चरित्र के प्रति संशय
रखना ।
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