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व्याख्याप्रज्ञप्ति
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टीकाकार कहते हैं कि ये भगवान् महावीर के पथभ्रष्ट शिष्य थे। चूणिकार का कथन है कि ये छ: दिशाचर पासत्थ अर्थात् पार्श्वनाथ की परम्परा के थे। आवश्यकचूणि में जहाँ महावीर के चरित्र का वर्णन है वहाँ गोशालक का चरित्र भी दिया हुआ है । यह चरित्र बहुत हो हास्यास्पद एवं विलक्षण है। वायुकाय व अग्निकाय : __सोलहवें शतक के प्रथम उद्देशक में बताया गया है कि अधिकरणी अर्थात् एरण पर हथौड़ा मारते हुए वायुकाय उत्पन्न होता है। वायुकाय के जीव अन्य पदार्थों का संस्पर्श होने पर ही मरते हैं, संस्पर्श के बिना नहीं । सिगड़ी ( अंगारकारिका-इंगालकारिया) में अग्निकाय के जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट तोन रात्रि-दिवस तक रहते हैं। वहाँ वायुकायिक जीव भी उत्पन्न होते हैं एवं रहते हैं क्योंकि वायु के बिना अग्नि प्रज्वलित नहीं होती। जरा व शोक :
द्वितीय उद्देशक में जरा व शोक के विषय में प्रश्नोत्तर हैं। इसमें बताया गया है कि जिन जीवों के स्थूल मन नहीं होता उन्हें शोक नहीं होता किन्तु जरा तो होती ही है। जिन जीवों के स्थूल मन होता है उन्हें शोक भी होता है और जरा भी। यहाँ पर भवनपति व वैमानिक देवों के भी जरा व शोक होने का स्पष्ट उल्लेख है। इस प्रकार जैन आगमों के अनुसार देव भी जरा व शोक से मुक्त नहीं हैं। सावध व निरवद्य भाषा:
इस प्रश्न के उत्तर में कि देवेन्द्र-देवराज शक्र सावध भाषा बोलता है अथवा निरवद्य, भगवान् महावीर ने बताया है जब शक 'सुहुमकायं णिहित्ता' अर्थात् सूक्ष्मकाय को ढंक कर बोलता है तब निरवद्य-निष्पाप भाषा बोलता है तथा जब वह 'सुहुमकायं अणिजूहित्ता' अर्थात् सूक्ष्मकाय को बिना ढंके बोलता है, तब सावद्य-सपाप भाषा बोलता है। तात्पर्य यह है कि हाथ अथवा वस्त्र द्वारा मुख ढंक कर बोलने वाले की भाषा निष्पाप अर्थात् निर्दोष होती है जब कि मुख को ढंके बिना बोलने वाले की भाषा सपाप अर्थात् सदोष होती है। इससे बोलने की एक जनाभिमत विशिष्ट पद्धति का पता लगता है । सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि देव :
पंचम उद्देशक में उल्लुयतीर नामक नगर के एक जंबू नामक चैत्य में भगवान् महावीर के आगमन का उल्लेख है । इस प्रकरण में भगवान् ने शक्रेन्द्र के प्रश्न के उत्तर में बताया है कि महाऋद्धिसम्पन्न यावत् महासुखसम्पन्न देव भी बाह्य
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