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व्याख्याप्रज्ञप्ति
प्रवचनान्तर- - चतुर्याम एवं पंचयाम के भेद के विषय में शंका करना । प्रावचनिकान्तर - प्रावचनिक अर्थात् प्रवचन का ज्ञाता । प्रावचनिकों के भिन्न-भिन्न आचार-प्रचारों के प्रति शंका करना ।
कल्पान्तर—कल्प अर्थात् आचार । आचार के सचेलकत्व, अचेलकत्व आदि भेदों के प्रति संशय रखना ।
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मार्गान्तर - मार्ग अर्थात् परम्परा से चली आने वाली सामाचारी | विविध प्रकार की सामाचारी के विषय में अश्रद्धा रखना ।
मतान्तर - परम्परा से चले आने वाले मत-मतान्तरों के प्रति अश्रद्धा रखना । नियमान्तर-- एक नियम के अन्तर्गत अन्य नियमान्तरों के प्रति अविश्वास
रखना ।
प्रमाणान्तर - - प्रत्यक्षरूप एक प्रमाण के अतिरिक्त अन्य प्रमाणों के प्रति विश्वास न रखना ।
इसी प्रकार अन्य कारणों के स्वरूप के विषय में भी समझ लेना चाहिये । रोह अनगार के इस प्रश्न के उत्तर में कि जीव पहले है या अजीव, भगवान् ने बताया है कि इन दोनों में से अमुक पहले है और क्रम नहीं है ये दोनों पदार्थ शाश्वत है— नित्य हैं ।
अमुक बाद में, ऐसा कोई
लोक का आधार :
गौतम के इस प्रश्न के उत्तर में कि समग्र लोक किसके आधार पर रहा हुआ है, भगवान् ने बताया है कि बाकाश के आधार पर वायु, वायु के आधार पर समुद्र, समुद्र के आधार पर पृथ्वी तथा पृथ्वी के आधार पर समस्त त्रस एवं स्थावर जीव रहे हुए हैं । समस्त अजीव जीवों के आधार पर रहे हुए हैं । लोक का ऐसा आधार - आधेय भाव है, यह किस आधार पर कहा जा सकता है ? इसके उत्तर में निम्न उदाहरण दिया गया है।
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एक बड़ी मशक में हवा भर कर ऊपर से बाँध दी जाय । बाद में उसे बीच से बाँध कर ऊपर का मुँह खोल दिया जाय । इसके ऊपर के
भाग की हवा
निकल जायगी । फिर उस खाली भाग में पानी भर कर ऊपर से मुँह बाँध दिया जाय व बीच की गांठ खोल दी जाय । इससे ऊपर के भाग में भरा हुआ पानी नीचे भरी हुई हवा के आधार पर टिका रहेगा । इसी प्रकार लोक पवन के आधार पर रहा हुआ है । अथवा जैसे कोई मनुष्य अपनी कमर पर हवा से भरी हुई मशक बाँध कर पानी के ऊपर तैरता रहता है, डूबता नहीं उसी प्रकार वायु के आधार पर समग्र लोक टिका हुआ है । इन उदाहरणों की परीक्षा आसानी से की जा सकती है ।
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