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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
देवगति में गया है । वह संसार में घूमता घूमता अन्त में सिद्ध होगा, बुद्ध होगा, मुक्त होगा ।
शिवराजर्षि :
ग्यारहवें शतक के नवें उद्देशक में हत्थिनागपुर के राजा शिव का वर्णन है । इस राजा को इतिहास की दृष्टि से देखा जाय अथवा केवल दंतकथा की दृष्टि से, इसका निर्णय नहीं किया जा सकता। इसके सामंत राजा भी थे, ऐसा उल्लेख मिलता है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यह कोई विशिष्ट राजा रहा होगा। इसे तापस होने की इच्छा होती है अतः अपने पुत्र शिवभद्र को गद्दी पर बैठाकर स्वयं दिशाप्रोक्षक परम्परा की दीक्षा स्वीकार करने के लिए गंगा के किनारे रहने वाले वानप्रस्थ तापसों के पास आता है एवं उससे दीक्षा लेता है । दीक्षा लेते ही वह निरंन्तर षष्ठ तप करने की प्रतिज्ञा करता है । इस तप के साथ वह रोज आतापनाभूमि पर आतापना लेता है । उसकी नित्य की चर्चा इस प्रकार बताई गई है: षष्ठ तप के पारणा के दिन वह आतापना - भूमि से उतर कर नीचे आता है, वृक्ष की छाल के कपड़े पहनता है, अपनी झोपड़ी में आता है फिर किठिण अर्थात् बांस का पात्र एवं संकाइयकायिक अर्थात् कावड़ ग्रहण करता है । बाद में पूर्वदिशा का प्रोक्षण ( पानी का छिड़काव ) करता है एवं 'पूर्वदिशा के सोम महाराज धर्म-साधना में प्रवृत्त शिवराज की रक्षा करें व पूर्व में रहे हुए कंद, मूल, पत्र, पुष्प, फल आदि लेने की अनुमति दें' यों कहकर पूर्व में जाकर कंदादि से अपना कावड़ भरता है । बाद में शाखा, कुश, समिघा, पत्र आदि लेकर अपनी झोंपड़ी में आता है । आकर कावड़ आदि रखकर वेदिका को साफ कर पानी व गोबर से पुताई करता है । बाद में हाथ में शाखा व कलश लेकर गंगानदी में उतरता है, स्नान करता है, देवकर्मपितृकर्म करता है, शाखा व पानी से भरा कलश लेकर अपनी झोपड़ी में आता है, कुश आदि द्वारा वेदिका बनाता है, अरणि को घिसकर अग्नि प्रकट करता है, समिधा आदि जलाता है व अग्नि की दाहिनी ओर निम्नोक्त सात वस्तुएँ रखता है : सकथा ( तापस का एक उपकरण ) वल्कल, ठाण अर्थात् दीप, शय्योपकरण, कमण्डल, दण्ड और सातवां वह खुद । तदनन्तर मधु, घी और चावल अग्नि में होम करता है, चरुबलि तैयार करता है, चरुबलि द्वारा वैश्वदेव बनाता है, अतिथि की पूजा करता है और बाद में भोजन करता है । इसी प्रकार दक्षिण दिशा के यम महाराज की, पश्चिम दिशा के वरुण महाराज की एवं उत्तर दिशा के वैश्रमण महाराज की अनुमति लेकर उपयुक्त सब क्रियाएँ करता है ।
ये शिवराजर्षि यों कहते थे कि यह पृथ्वी सात द्वीप व सात समुद्र वाली हैं । इसके बाद कुछ नहीं है । जब इन्हें भगवान् महावीर के आगमन का पता
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