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जैन साहित्य का बृहद इतिहास
जिस प्रकरण में निरूपणीय सामग्री अधिक है उसके द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ प्रकरण में ऐसे चार-चार उपविभाग हैं तथा पंचम प्रकरण में तीन उपविभाग हैं । इन उपविभागों का पारिभाषिक नाम 'उद्देश' है ।
अध्ययन अथवा प्रकरण हैं । उपविभाग भी किये गये हैं ।
समवायांग की शैली भी इसी प्रकार की है भी निरूपण है अतः उसकी
किन्तु उसमें दस से आगे की संख्या वाली वस्तुओं का प्रकरणसंख्या स्थानांग की तरह निश्चित नहीं है अथवा यों समझना चाहिए कि उसमें स्थानांग की तरह कोई प्रकरणव्यवस्था नहीं की गई है । इसीलिए नंदोसूत्र में समवायांग का परिचय देते हुए कहा गया है कि इसमें एक ही अध्ययन है ।
स्थानांग व समवायांग की कोशशैली बौद्धपरम्परा एवं वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में भी उपलब्ध होती है । बौद्धग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय, पुग्गलपञ्ञत्ति, महाव्युत्पत्ति एवं धर्मसंग्रह में इसी प्रकार की शैली में विचारणाओं का संग्रह किया गया है । वैदिक परम्परा के ग्रंथ महाभारत के वनपर्व (अध्याय १३४ ) में भी इसी शैली में विचार संगृहीत किये गये हैं ।
स्थानांग व समवायांग में संग्रहप्रधान कोशशैली होते हुए भी अनेक स्थानों पर इस शैली का सम्यक्तया पालन नहीं किया जा सका। इन स्थानों पर या तो शैली खंडित हो गई है या विभाग करने में पूरी सावधानी नहीं रखी गई है । उदाहरण के लिए अनेक स्थानों पर व्यक्तियों के चरित्र आते हैं, पर्वतों का
संवाद आते हैं । ये सब खंडित
वर्णन आता है, महावीर और गौतम आदि के शैली के सूचक हैं । स्थानांग के सू० २४४ में लिखा है कि तृणवनस्पतिकाय चार प्रकार के हैं, सू० ४३१ में लिखा है कि तृणवनस्पतिकाय पाँच प्रकार के हैं और सू० ४८४ में लिखा है कि तृणवनस्पतिकाय छ: प्रकार के हैं । यह अन्तिम सूत्र तृणवनस्पतिकाय के भेदों का पूर्ण निरूपण करता है जबकि पहले के दोनों सूत्र इस विषय में अपूर्ण हैं । अन्तिम सूत्र की विद्यमानता में ये दोनों सूत्र व्यर्थ हैं । यह विभाजन की असावधानी का उदाहरण है ।
समवायांग में एकसंख्यक प्रथम सूत्र के अन्त में इस आशय का कथन है कि कुछ जीव एकभव में सिद्धि प्राप्त करेंगे । इसके बाद द्विसंख्यक सूत्र से लेकर तैंतीससंख्यक सूत्र तक इस प्रकार का कथन है कि कुछ जीव दो भव में सिद्धि प्राप्त करेंगे, कुछ जीव तीन भव में सिद्धि प्राप्त करेंगे, भव में सिद्धि प्राप्त करेंगे । इसके बाद इस आशय का
यावत् कुछ जीव तैंतीस कथन बंद हो जाता है । अथवा इससे अधिक भव
क्या कोई जीव चौंतीस भव
इस प्रकार के सूत्र विभाजन की शैली को दोषयुक्त विसंगति उत्पन्न करते हैं ।
इससे क्या समझा जाय ? में सिद्धि प्राप्त नहीं करेगा ? बनाते हैं एवं अनेक प्रकार की
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