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व्याख्याप्रज्ञप्ति
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सर्वप्रथम करके इस पाठ को विशेष महत्त्व दिया है । व्याख्याप्रज्ञप्ति शब्द की व्याख्या वृत्तिकार ने अनेक प्रकार से की है :
१. वि + आ + ख्या + प्र + ज्ञप्ति अर्थात् विविध प्रकार से समग्रतया कथन का प्रकृष्ट निरूपण । जिस ग्रन्थ में कथन का विविध ढंग से सम्पूर्णतया प्रकृष्ट निरूपण किया गया हो वह ग्रन्थ व्याख्याप्रज्ञप्ति कहलाता है वि विविधाः, आ अभिविधिना, ख्याः ख्यानानि भगवतो महावीरस्य गौतमादिविनेयान् प्रति प्रश्नित पदार्थ प्रतिपादनानि व्याख्याः ताः प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते भगवता सुधर्मस्वामिना जम्बूनामानमभि यस्याम् ।
२. वि + आख्या + प्रज्ञप्ति अर्थात् विविधतया कथन का प्रज्ञापन | जिस शास्त्र में विविध रूप से कथन का प्रतिपादन किया गया हो उसका नाम है व्याख्याप्रज्ञप्ति । वृत्तिकार ने इस व्याख्या को यों बताया है वि विविधतया विशेषेण वा आख्यायन्ते इति व्याख्याः ताः प्रज्ञाप्यन्ते यस्याम् ।
३. व्याख्या + प्रज्ञा + आप्ति अथवा आत्ति अर्थात् व्याख्यान की कुशलता से प्राप्त होने वाला अथवा ग्रहण किया जाने वाला श्रुतविशेष व्याख्याप्रज्ञाप्ति अथवा व्याख्याप्रज्ञात्ति कहलाता है ।
४. व्याख्याप्रज्ञ + आप्ति अथवा आत्ति अर्थात् व्याख्यान करने में प्रज्ञ अर्थात् कुशल भगवान् से गणधर को जिस ग्रंथ द्वारा ज्ञान की प्राप्ति हो अथवा कुछ ग्रहण करने का अवसर मिले उसका नाम व्याख्याप्रज्ञाप्ति अथवा व्याख्याप्रज्ञात्ति है ।
विवाहप्रज्ञप्ति की व्याख्या वृत्तिकार ने इस प्रकार की हैं वि + वाह + प्रज्ञप्ति अर्थात् विविध प्रवाहों का प्रज्ञापन | जिस शास्त्र में विविध अथवा विशिष्ट अर्थप्रवाहों का निरूपण किया गया हो उसका नाम है विवाहप्रज्ञप्ति - विवाहपण्णत्ति ।
इसी प्रकार विबाघप्रज्ञप्ति का अर्थ बताते हुए वृत्तिकार ने लिखा है कि वि अर्थात् रहित बाघ अर्थात् बाघा एवं प्रज्ञप्ति अर्थात् निरूपण याने जिस ग्रन्थ में बाधारहित अर्थात् प्रमाण से अबाधित निरूपण उपलब्ध हो उसका नाम विबाघप्रज्ञप्ति - विबाहपणत्ति है । इन शब्दों में भी आप्ति एवं आत्ति जोड़कर पूर्ववत् अर्थ समझ लेना चाहिए ।
उपलब्ध व्याख्याप्रज्ञप्ति में जो शैली विद्यमान है वह गौतम के प्रश्नों एवं भगवान् महावीर के उत्तरों के रूप में है । यह शैली अति प्राचीन प्रतीत होती है । अचेलक परम्परा के ग्रंथ राजवार्तिक में भट्ट अकलंक ने व्याख्याप्रज्ञप्ति में इस प्रकार की शैली होने का स्पष्ट उल्लेख किया है : एवं हि व्याख्याप्रज्ञप्तिदंडकेषु उक्तम्" " इति गौतमप्रश्ने भगवता उक्तम् ( अ० ४, सू० २६, पृ० २४५ ) ।
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