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सूत्रकृतांग कहलाता है तथा असंयमपरायण का वीर्य बालवीर्य। 'कर्मवीर्य' का 'कर्म' शब्द प्रमाद एवं असंयम का सूचक है तथा 'अकर्मवीर्य का 'अकर्म' शब्द अप्रमाद एवं संयम का निर्देशक है। कर्मवीर्य-बालवीर्य का विशेष परिचय देते हुए सत्रकार कहते हैं कि कुछ लोग प्राणियों के विनाश के लिए अस्त्र विद्या सीखते हैं एवं कुछ लोग प्राणियों की हिंसा के लिए मंत्रादि सीखते हैं। इसी प्रकार अकर्मवीर्य-पंडितवीर्य का विवेचन करते हुए कहा गया है कि इस वीर्य में संयम की प्रधानता है। ज्यों-ज्यों पंडितवीर्य बढ़ता जाता है त्यों-त्यों संयम बढ़ता जाता है एवं पूर्णसंयम प्राप्त होने पर निर्वाणरूप अक्षय सुख मिलता है । यही पंडितवीर्य अथवा अकर्मवीर्य का सार है। बालवीर्य अथवा कर्मवीर्य का परिणाम इससे विपरीत होता है । उससे दुःख बढ़ता है-संसार बढ़ता है। धर्म :
धर्म नामक नवम अध्ययन का व्याख्यान करते हुए नियुक्तिकार आदि ने 'धर्म' शब्द का अनेक रूपों में प्रयोग किया है, यथा--कुलधर्म, नगरधर्म, प्रामधर्म, राष्ट्रधर्म, गणधर्म, संघधर्म, पाखंडधर्म, श्रुतधर्म, चारित्रधर्म, गृहस्थधर्म, पदार्थधर्म, दानधर्म आदि । अथवा सामान्यतया धर्म दो प्रकार का है : लौकिक धर्म और लोकोत्तर धर्म । जैन परम्परा अथवा जैन प्रणाली के अतिरिक्त सब धर्म, मार्ग अथवा सम्प्रदाय लौकिक धर्म में समाविष्ट हैं। जैन प्रणाली की दृष्टि से प्रवर्तित समस्त आचार-विचार लोकोत्तर धर्म में समाविष्ट होते हैं। प्रस्तुत अध्ययन में लोकोत्तर धर्म का निरूपण है। इसमें चूणि की वाचना के अनुसार ३७ गाथाएँ हैं जबकि वृत्तिकी वाचना के अनुसार गाथाओं की संख्या ३६ है। गाथाओं की वाचना में भी चूणि व वृत्ति की दृष्टि से काफी भेद है।
प्रथम गाथा के पूर्वार्ध में प्रश्न है कि मतिमान् ब्राह्मणों ने कौन सा व कैसा धर्म बताया है ? उत्तरार्ध में उत्तर है कि जिनप्रभुओं ने-अर्हतों ने जिस आजवरूप-अकपट रूप धर्म का प्रतिपादन किया है उसे मेरे द्वारा सुनो । आगे बताया गया है कि लोग आरंभ आदि दूषितप्रवृत्तियों में फंसे रहते हैं वे इस लोक तथा परलोक में दुःख से मुक्ति नहीं पा सकते । अतः निर्ममतारूप एवं निरहंकाररूप ऋजुधर्म का आचरण करना चाहिए जो परमार्थानुगामी है । श्रमणधर्म के दूषणरूप कुछ आदान प्रस्तुत अध्ययन में इस प्रकार गिनाये हैं :
१. असत्य वचन २. बहिद्धा अर्थात् परिग्रह एवं अब्रह्मचर्य ३. अदत्तादान अर्थात् चौर्य
४. वक्रता अर्थात् माया-कपट-परिकुंचन-पलिउंचण Jain Education Internati28
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