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स्थानांग व समवायांग
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व निषेधात्मक वचन उपलब्ध हैं । कुछ सूत्रों में इस प्रकार के वचन सीधे रूप में हैं तो कुछ में कथाओं, संवादों एवं रूपकों के रूप में
स्थानांग व समवायांग में
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ऐसे वचनों का विशेष अभाव है इन दोनों सूत्रों के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि ये संग्रहात्मक कोश के रूप में निर्मित किये गये हैं । अन्य अंगों की अपेक्षा इनके नाम एवं विषय सर्वथा भिन्न प्रकार के हैं । इन अंगों की विषयनिरूपणशैली से ऐसा भी अनुमान किया जा सकता है कि अन्य सब अंग पूर्णतया बन गये होंगे तब स्मृति अथवा धारणा की सरलता की दृष्टि से अथवा विषयों की खोज की सुगमता की दृष्टि से पीछे से इन दोनों अंगों की योजना की गई होगी तथा इन्हें विशेष प्रतिष्ठा प्रदान करने के हेतु इनका अंगों में समावेश कर दिया गया होगा ।
इन अंगों की उपलब्ध सामग्री व शैली को देख कर वृत्तिकार अभयदेवसूरि के मन में जो भावना उत्पन्न हुई उसका थोड़ा सा परिचय प्राप्त करना अनुपयुक्त न होगा । वे लिखते हैं :
सम्प्रदाय हीनत्वात् सद्गृहस्य वियोगतः । सर्वस्वपरशास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्च मे ॥ १ ॥
वाचनानामनेकत्वात् पुस्तकानामशुद्धतः । सूत्राणामतिगाम्भीर्यात् मतभेदाच्च कुत्रचित् ॥ २॥
यस्य ग्रन्थवरस्य वाक्यजलधेर्लक्षं सहस्राणि च, चत्वारिंशदहो चतुर्भिरधिका मानं पदानामभूत् । तस्योच्चै चुलुका कृति निदधतः कालादिदोषात् तथा, दुर्लेखात् खिलतां गतस्य कुधियः कुर्वन्तु किं मादृशाः ॥ १ ॥ वरगुरुविरहात् वाऽतीतकाले मुनीर्गंणधरवचनानां श्रस्तसंघातनात् वा ।
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-- स्थानांगवृत्ति के अन्त में प्रशस्ति.
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संभाव्योऽस्मिंस्तथापि क्वचिदपि मनसो मोहतोऽर्थादिभेदः ||५||
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- समवायांगवृत्ति के अन्त में प्रशस्ति.
अर्थात् ग्रंथ को समझने की परम्परा का अभाव है, अच्छे तर्क का वियोग है, सब स्वपर शास्त्र देखे न जा सके और न उनका स्मरण ही हो सका, वाचनाएँ अनेक
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