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सूत्रकृतांग
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बोलना, झूठ बुलवाना और झूठ बोलने वाले का समर्थन करना मृषाप्रत्ययदण्ड है।
७. इसी प्रकार चोरी करना, करवाना अथवा करने वाले का समर्थन करना अदत्तादानप्रत्ययदण्ड है।
८. हमेशा चिन्ता में डूबे रहना, उदास रहना, भयभीत रहना, संकल्पविकल्प में मग्न रहना अध्यात्मप्रत्ययदण्ड है। इस प्रकार के मनुष्य के मन में क्रोधादि कषायों की प्रवृत्ति चलती ही रहती है।
९. जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, ज्ञानमद, लाभमद, ऐश्वर्यमद, प्रशामद आदि के कारण दूसरों को हीन समझना मानप्रत्ययदण्ड है ।
१०. अपने साथ रहने वालों में से किसी का जरा-सा भी अपराध होने पर उसे भारी दण्ड देना मित्रदोषप्रत्ययदण्ड है । इस प्रकार का दण्ड देने वाला महापाप का भागी होता है ।
११. कपटपूर्वक अनर्थकारी प्रवृत्ति करने वाले मायाप्रत्ययदण्ड के भागी होते हैं।
१२. लोभ के कारण हिंसक प्रवृत्ति में फँसने वाले लोभप्रत्ययदण्ड का उपार्जन करते हैं । ऐसे लोग इस लोक व परलोक दोनों में दुःखी होते हैं।
१३. तेरहवाँ क्रियास्थान धर्महेतुकप्रवृत्ति का है । जो इस प्रकार की प्रवृत्ति धीरे-धीरे बढ़ाते हैं वे यतनापूर्वक समस्त प्रवृत्ति करने वाले, जितेन्द्रिय, अपरिग्रही पंचसमिति एवं त्रिगुप्तियुक्त होते हैं एवं अन्ततोगत्वा निर्वाण प्राप्त करते हैं । इस प्रकार निर्वाण के इच्छुकों के लिए यह तेरहवाँ क्रियास्थान आचरणीय है । शुरू के बारह क्रियास्थान हिंसापूर्ण हैं । इनसे साधक को दूर रहना चाहिए । बौद्ध दृष्टि से हिंसा :
बौद्ध परम्परा में हिंसक प्रवृत्ति की परिभाषा भिन्न प्रकार की है। वे ऐसा मानते हैं कि निम्नोक्त पाँच अवस्थाओं की उपस्थिति में ही हिंसा हुई कही जा सकती है, एवं इसी प्रकार की हिंसा कर्मबन्धन का कारण होती है :
१. मारा जाने वाला प्राणी होना चाहिए । २. मारने वाले को 'यह प्राणी है' ऐसा स्पष्ट भान होना चाहिए। ३. मारने वाला यह समझता हुआ होना चाहिए कि 'मैं इसे मार रहा हूँ। ४. साथ ही शारीरिक क्रिया होनी चाहिए । ५. शारीरिक क्रिया के साथ प्राणी का वध भी होना चाहिए ।
इन शर्तों को देखते हुए बौद्ध परम्परा में अकस्मात्दण्ड, अनर्थदण्ड वगैरह हिंसारूप नहीं गिने जा सकते । जैन परिभाषा के अनुसार राग-द्वेषजन्य प्रत्येक
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