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सूत्रकृतांग
२०५ समय गति में रहे हुए जीवों का आहार सूक्ष्म होता है । सूक्ष्म प्राणियों का आहार भी सूक्ष्म ही होता है । कामादि तीन धातुओं में स्पर्श, मनस्संचेतना एवं विज्ञानरूप आहार है।'
आहारपरिज्ञा नामक प्रस्तुत अध्ययन में यह स्पष्ट बताया गया है कि जीव की हिंसा किये बिना आहार की प्राप्ति अशक्य है। समस्त प्राणियों की उत्पत्ति एवं आहार को दृष्टि में रखते हुए यह बात आसानी से फलित की जा सकती है । इस अध्ययन के अन्त में संयमपूर्वक आहार प्राप्त करने के प्रयास पर भार दिया गया है जिससे जीवहिंसा कम से कम हा । प्रत्याख्यान :
चतुर्थ अध्ययन का नाम प्रत्याख्यानक्रिया है। प्रत्याख्यान का अर्थ है अहिंसादि मूलगुणों एवं सामायिकादि उत्त रगुणों के आचरण में बाधक सिद्ध होने वाली प्रवृत्तियों का यथाशक्ति त्याग । प्रस्तुत अध्ययन में इस प्रकार की प्रत्याख्यानक्रिया के सम्बन्ध में निरूपण है। यह प्रत्याख्यानक्रिया निरवद्यानुष्ठानरूप होने के कारण आत्मशुद्धि के लिए साधक है। इससे विपरीत अप्रत्यख्यानक्रिया सावद्यानुष्ठानरूप होने के कारण आत्मशुद्धि के लिए बाधक है। प्रत्याख्यान न करने वाले को भगवान् ने असंयत, अविरत, पापक्रिया असंवृत बाल एवं सुप्त कहा है। ऐसा पुरुष विवेकहीन होने के कारण सतत कर्मबन्ध करता रहता है । यद्यपि इस अध्ययन का प्रारम्भ भी पिछले अध्ययनों की ही भांति 'हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है कि भगवान् ने यों कहा है' इससे होता है तथापि यह अध्ययन संवादरूप है । इसमें एक पूर्वपक्षी अथवा प्रेरक शिष्य है और दूसरा उत्तरपक्षी अथवा समाधानकर्ता आचार्य है। इस अध्ययन का सार यह है कि जो आत्मा षटकाय के जीवों के वध के त्याग की वृत्तिवाली नहीं है तथा जिसने उन जीवों को किसी भी समय मार देने की छूट ले रखी है वह आत्मा इन छहों प्रकार के जीवों के साथ अनिवार्यतया मित्रवत् व्यवहार करने की वृत्ति से बधा हुआ नहीं है। वह जब चाहे, जिस किसी का वध कर सकता है। उसके लिए पापकर्म के बन्धन की निरन्तर संभावना रहती है और किसी सीमा तक वह नित्य पापकर्म बांधता भी रहता है क्योंकि प्रत्याख्यान के अभाव में उसकी भावना सदा सावधानुष्ठानरूप रहती है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार ने एक सुन्दर उदाहरण दिया है । एक व्यक्ति वधक है-वध करने वाला है। उसने यह सोचा कि अमुक गृहस्थ, गृहस्थपुत्र, राजा अथवा राजपुरुष की हत्या करनी है । अभी थोड़ी देर सो जाऊं और फिर उसके घर में घुस कर मौका पाते ही उसका काम
१. देखिये-अभिधर्मकोश, तृतीय कोशस्थान, श्लो० ३८-४४. .
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