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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्राणियों की हिंसा का त्याग है । इस प्रकार का प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है। इससे प्रत्याख्यान कराने वाला व प्रत्याख्यान करने वाला दोनों दोष के भागी होते है। यह कैसे ? संसार में जन्म धारण करने वाले प्राणी स्थावररूप से भी जन्म ग्रहण करते हैं और सरूप से भी। जो स्थावररूप से जन्म लेते हैं वे ही सरूप से भी जन्म लेते हैं तथा जो त्रसरूप से जन्म लेते हैं वे ही स्थावररूप से भी जन्म लेते हैं अतः स्थावर और त्रस प्राणियों की समझ में बहुत उलझन होती है । कौन-सा प्राणी स्थावर है और कौन-सा त्रस, इसका निपटारा अथवा निश्चय नहीं हो सकता। अतः त्रस प्राणियों को हिंसा का प्रत्याख्यान व उसका पालन कैसे सम्भव है ? ऐसी स्थिति में केवल त्रस प्राणी को हिंसा का प्रत्याख्यान करवाने के बजाय त्रसभूत प्राणी को अर्थात् जो वर्तमान में सरूप है उसकी हिंसा का प्रत्याख्यान करवाना चाहिए। इस प्रकार प्रत्याख्यान में त्रस' के बजाय 'त्रसभूत' शब्द का प्रयोग करना अधिक उपयुक्त होगा। इससे न प्रत्याख्यान देने वाले को कोई दोष लगेगा, न लेने वाले को । उदय पेढालपुत्त की इस शंका का समाधान करते हुए गौतम इन्द्रभूति मुनि ने कहा कि हमारा मत 'स' के बजाय त्रसभूत' शब्द का प्रयोग करने का समर्थन इसलिए नहीं करता कि आपलोग जिसे 'त्रसभूत' कहते हैं उसी अर्थ में हम लोग 'स' शब्द का प्रयोग करते हैं। जिस जीव के त्रस नामकर्म तथा आयुष्यकर्म का उदय हो उसी को त्रस कहते हैं। इस प्रकार के उदय का सम्बन्ध वर्तमान से ही है, न कि भूत अथवा भविष्य से।
उदय पेढालपुत्त ने गोतम इन्द्रभूति से दूसरा प्रश्न यह पूछा है कि मान . लीजिये इस संसार में जितने भी सजीव है सबके सब स्थावर हो जायं अथवा जितने भी स्थावर जोव है सबके सब त्रस हो जायं तो आप जो प्रत्याख्यान करवाते हैं वह क्या व्यर्थ नहीं हो जायगा ? सब जीवों के स्थावर हो जाने पर अस की हिंसा का कोई प्रश्न ही नहीं रहता। इसी प्रकार सब लोगों के त्रस हो जाने पर अस को हिंसा का त्याग कैसे सम्भव हो सकता है ? इसका उत्तर देते हुए गौतम ने कहा है कि सब स्थावरों का अस हो जाना अथवा सब त्रसों का स्थावर हो जाना असम्भव है। ऐसा न कभी हुआ है, न होता है और न होगा। इस तथ्य को समझाने के लिए सूत्रकार ने अनेक उदाहरण दिए हैं । प्रस्तुत अध्ययन में प्रत्याख्यान के सम्बन्ध में इसी प्रकार की चर्चा है। इनमें कुछ शब्द एवं
छोड़ देने की विनती की। राजा ने उनमें से एक को छोड़ दिया । इसी न्याय से छः कायों में से स्थूल प्राणातिपात का त्याग किया जाता है अर्थात् त्रस प्राणियों की हिंसा न करने का नियम स्वीकार किया जाता है।
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