________________
१८८
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
उल्लेख है । इसके आधार पर कुछ शिथिल श्रमण यह कहने के लिए तैयार होते हैं कि यदि ये लोग ठंडा पानी पीकर, निरंतरभोजी रहकर एवं फल-फूलादि खाकर महापुरुष बने हैं एवं मुक्त हुए हैं तो हम वैसा क्यों नहीं कर सकते ? इस प्रकार के हेत्वाभास द्वारा ये शिथिल श्रमण अपने आचार से भ्रष्ट होते हैं । उपर्युक्त सब तपस्वियों का वृत्तान्त वैदिक ग्रन्थों में विशेष प्रसिद्ध है । एतद्विषयक विशेष विवेचन 'पुरातत्त्व' नामक त्रैमासिक पत्रिका में प्रकाशित 'सूत्रकृतांगमां आवतां विशेषनामों' शीर्षक लेख में उपलब्ध है ।
कुछ शिथिल श्रमण यों कहते हैं कि सुख द्वारा सुख प्राप्त किया जा सकता है अतः सुख प्राप्त करने के लिए कष्ट सहन करने की आवश्यकता नहीं है । जो लोग सुखप्राप्ति के लिए तपरूप कष्ट उठाते हैं वे भ्रम में हैं । चूर्णिकार ने यह मत शाक्यों अर्थात् बौद्धों का माना है । वृत्तिकार ने भी इसी का समर्थन किया है और कहा है कि लोच आदि के कष्ट से संतप्त कुछ स्वयूथ्य अर्थात् जैन श्रमण भी इस प्रकार कहने लगते हैं : एके शाक्यादयः स्वयूथ्या वा लोचादिना उपतप्ताः । चूर्णिकार व वृत्तिकार की यह मान्यता कि 'सुख से सुख मिलता है' यह मत aai का है, सही है किन्तु बुद्ध के प्रवचन में भी तप, संवर, अहिंसा तथा त्याग की महिमा है । हाँ, इतना अवश्य है कि उसमें घोरातिघोरतम तप का समर्थन नहीं है । विसुद्धिमग्ग व धम्मपद को देखने से यह बात स्पष्ट हो जाती है ।
आगे की गाथाओं में तो इनसे भी अधिक भयंकर हेत्वाभासों द्वारा अनुकूल तर्क लगाकर वासना तृप्तिरूप सुखकर अनुकूल उपसर्ग उपपन्न किये गये हैं। नवीं व दसवीं गाथा में बताया गया है कि कुछ अनार्य पासत्थ (पार्श्वस्थ अथवा पाशस्थ ) जो कि स्त्रियों के वशीभूत हैं तथा जिनशासन से पराङ्मुख हैं, यों कहते हैं कि जैसे फोड़े को दबाकर साफ कर देने से शान्ति मिलती है वैसे ही प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ संभोग करने में कोई दोष नहीं है । जिस प्रकार भेड़ अपने घुटनों को पानी में झुकाकर पानी को बिना गंदा किये धीरे-धीरे स्थिरतापूर्वक पीता है उसी प्रकार रागरहित चित्त वाला मनुष्य अपने चित्त को दूषित किये बिना स्त्री के साथ संभोग करता है । इसमें कोई दोष नहीं है । वृत्तिकार ने इस प्रकार की मान्यता रखने वालों में नीलवस्त्रवाले बौद्धविशेषों, नाथवादिक मंडल में प्रविष्ट शैवविशेषों एवं स्वयथिक कुशील पार्श्वस्थों का समावेश किया है । इन गाथाओं से स्पष्ट है कि जैनेतर भिक्षुओं की भाँति कुछ जैन श्रमण — शिथिल चैत्यवासी भी स्त्रीसंसर्ग का सेवन करने लगे थे । इस प्रकार के लोगों को पूतना की उपमा देते हुए सूत्रकार ने कहा है कि जैसे पिशाचिनी पूतना छोटे बालकों में आसक्त रहती है वैसे ही ये मिध्यादृष्टि स्त्रियों में आसक्त रहते हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org